Monday, July 1, 2019
Thursday, April 25, 2019
परत
जब आंसुओं का स्वाद होठो पर चढ़ता है
कड़वा एहसास बेबसी में बदलता है।
नक्सीर की टक्साल जाम हो जाती है
भेजे की नसे सुन्न सो जाती है।
ख़्याल और मिजाज़ से जब बू आती है
सीने में जकड़न क्यूं आती हैं।
परत आंसुओं की रह जाएगी
सूजन आंखों पर भर आएगी।
बस सेवरे ना मेरा तुम हाल पूछ लेना
भारी आवाज़ अच्छे बहाने न बना पाएगी।
Sunday, March 31, 2019
तस्वीरों की टोली
तस्वीरों की टोली
हमारी आपकी बोली
किसी राज़ की तरह
चंद कानों तक जा पहुंची।
आपका है हुनर
हमारी है जुर्रत
थोड़ा आपको बाटना
थोड़ा हमें है दिखाना।
कुछ हम पर आलोचनाएं
कुछ आप पर मज़ाक
जब तक दिए साथ
थोड़ा सा सेह लेंगे।
आप हो गए वीराने
हमें भी कई छोड़ गए
अनगिनत करके बहाने
चुन चुन मुंह मोड़ गए।
जान ना पहचान
ना एक दूजे के मेहमान
ना हुए कुछ हैरान
ना मिला कोई पैग़ाम।
हमारी पलकें झपकी
आपकी आंखें चड़ेंगी
बुलबुल बटुक के साथ
ग़म की सरगम लड़ेगी।
बसी बासी ये यादें
घिसे पिटे है अल्फ़ाज़
जिस दिन मिलन होगा
टूटेगें सबके राज।
Monday, March 25, 2019
बहाने को बहाना
बहाने को बहाना
थोड़ा दूर, थोड़ा दूर
अंखियों का आइना
होगा चूर, होगा चूर
दबी सी आवाज़ हैं
बासी अंदाज़ है
बिगड़े मिजाज़ पे
डालो धूल, डालो धूल
बाहाने को बहाना
थोड़ा दूर, थोड़ा दूर।
खिलखिलाती थैली हैं
बारिश में जो मैली हैं
छप छप पांव पड़े
है ज़रूर, है ज़रूर
डब्बो की ताल है
थाली का कमाल है
मंडली में थिर्के
जाएं झूम, जाएं झूम
बाहाने को बहाना
थोड़ा दूर, थोड़ा दूर।।
गोल मटोल मुस्कान
लेंगे चूम, लेंगे चूम
शर्माके भागों
तो ज़रूर, तो ज़रूर
आवाज़ अपनी हल्की है
बातें दो पल भर की हैं
वाह वाही ने किया
हैं मशहूर, हैं मशहूर
बाहाने को बहाना
थोड़ा दूर, थोड़ा दूर।।।
Saturday, March 23, 2019
रेशमी रुमाल
गोते में तय सफ़र,
तेरी तार से मेरी छत तक,
कमज़ोर थीं क्या चिमटी,
या था कोई पुरोहित,
करवा दी जो मुलाक़ात,
तेरे रेशमी रुमाल से।
कल्याणी थी महक,
कृपा गुलाबीपन,
एहसास रेशम का,
अभ्यस्त है उतावला मन,
सम्हालू उस कबख़्त को,
तेरे रेशमी रुमाल से।
जानकर या बूझकर,
या कहीं बेपरवाही,
तू धुन में अपनी चल दी,
मैं अनसुना सा थम गया,
पर कुछ अपना सा पाया,
तेरे रेशमी रुमाल से।
परसों से बरसों बाद,
छत्तीस सौ धुलाई के बाद,
किसी अड़ियल मैल के जैसे,
आभार से आसार होंगे,
पर काम चलाना पड़ेगा,
तेरे रेशमी रुमाल से।
Saturday, February 16, 2019
सासें
सांसें चलती हैं
मस्तिष्क खिचता हैं
सपनों की सूरत तोह नहीं
मगर उनका जिस्म बिकता हैं
जाड़े की रात में गुम होता कोहरा
और उसमें भी बुलबुल रोता हैं
ऊंचे मकानों की खुली छत पर
कोई बेघर बावला सोता हैं
ख़ाली पेट पर चुस्की लेकर
सीना दूध सा उबलता हैं
सूखे लबों के पास आने पर
हलक़ आंच सा सुलगता हैं
रयाज़त से बनी ताक़त का
सय्यम चूर होता हैं
कड़वी कठोर बोली से
श्रोता दूर होता हैं
घुसते हो हमारे बिस्तर में
तब नर्माहट भी खिसकता हैं
जब कंधा सिर सम्हालता
तब खर्राटा भी सिसकता हैं
नया फ़िर गुनगुनाएगा
गया हुआ खो जाता हैं
जो कल नहीं बच पाएगा
वह आज ही रो जाता हैं
।
Thursday, February 7, 2019
तोए ت
मुस्कान बरसे झोले में
जब तोए फसे गोले में।
खनके कितनी पहली पहल
बासी बिखरे कोने में
जब तोए फसे गोले में।
नक़्क़ादों का फ़रमान बोसा
और तारीफ़ मिले ढकोसले में
जब तोए फसे गोले में।
तमीज़ डकारे पैर पसारे
दिखे अकड़ भोले में
जब तोए फसे गोले में।
नादानी हाए परेशानी जाएं
आसरा का ताला खोले यह
जब तोए फसे गोले में।
भोर सा मुखड़ा चांद का टुकड़ा
आबाद दिल होले ये
जब तोए फसे गोले में।
धक धक कम कम फिर अगला जन्म
पैदाइश पर चेहरा होए कैसा?
ऐसा की, कोई तोए फसे गोले में।
Thursday, January 31, 2019
आवाज़ एवं चादर
सुबह की कंपन
दोपहरी झुलसन
फ़िर शाम की थकन,
कोई आवाज़ कहती मेरे सर पर
आ रहा हूं मैं बिछाने
काली चादर तेरे मन पर।
उसी चादर के भीतर
पलकों में छिपाएं आंसू
हलक में दबाएं सिसक
आवाज़ फ़िर भी कोसे
दुखियारी राग में बेधड़क।
आवाज़ हैं कि बौखलाए,
तू आवारा, तू नाकारा
और न जाने क्या क्या,
फाड़ लू अपने पर्दे
फोड़ लू अपनी आंखें
जोड़ लू हाथ अंधेरे को
कि जान मेरी लेजा ले।
बेगुनाही का मंसूब बेबसी से
जो बेकसूर हुआ फ़ौत
खुशियों की कोक में।
यकीं नहीं होता अपनी यादों पर
ना दिखे भरोसे का ठिकाना
आने वाले कल की खोज में।
Sunday, January 27, 2019
गुलाबी
बढ़ती आग की लाली में,
कोई धनुष तीर तान बैठे
बूढ़े पीपल की डाली पे,
उठे चमकती शमशीर यू
नीले झरने के आंचल से,
हुई कुर्बानियां गाड़ी सुर्ख
गंदी गलियों की नाली में।
किसी झाड़ी के पीछे छिपा जत्था, अनगिनत चीखों के बीच अपने पुरषोत्तम का इंतज़ार कर रहा था। ख़ून के बौछारों की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती, ना मालूम पड़ती है ध्वनि उस धार की जो लोथड़े को चीर फाड़े। जिस कल्पना से किसी तट किनारे कीर्तन हुआ करते थे, वोह आज बेबसी से भरे घूटों को भी न्योता भेजे थीं। अच्छी यादें तोह नरमाहट सी होती हैं, मगर वर्तमान के डरावने सपनों ने अच्छे अच्छो के पिछवाड़े जमा दिए।
चींटी मक्खी मनाएं दावत
लसलसे ख़ून के रस से,
जो ना चूसे वों घूमे हैं
भद्दे गंध की उमस में।
बिन छटपटाए
कोई सो जाएं
निहायती भी ना रो पाए,
जो रो जाएं
वोह खों जाएं
कट गिरे सिर जो धड़ से।
एक बूढ़ा और उसका नाति खुशकिस्मती से जान बचा कर भाग सके, हालाकि दुआओं पर अभी भी ज़ोर दीया जा रहा था। नाक सिकुड़ी, लुंगी गीली और नयन ताके रस्ता, गुलाबी बादलों की मदद से। अचानक से तलवे फिसलते संतुलन के मारे, जो आगे कोई चट्टान सा साया रस्ता रोके खड़ा था। नन्हा अपने नाना के लुंगी के पीछे छिपा; अपनी आवाज़ को ज़ुबां, और ज़ुबां को दाड़ के पीछे छिपाए हुए था। धीमें से साया आगे बढ़ा।
शूरवीर था क्यूं
लालची जोख़िम का,
लालच थी क्यूं
शोले सी तालू पर,
ना थकान लागे इसको
ना दर्द जागे इसमें,
मोड़ कर पांव
जोड़ कर हाथ
पटक कर अस्त्र
धरती की लकीरों पर,
ऐसी गुलाबी बादलों की करतूत
अपनों से कैसे आवारा बनाती
और कैसा बंजारे साए का करिश्मा
पिछड़े लावारिस जीवन को बचाती।
Tuesday, January 22, 2019
दौलतराम-गंगाराम
दौलतराम की गंगा मैली,
गंगाराम कंगाल बड़ा,
भ्रांति भ्राता मन से खेले,
आफ़त का बढ़ता घड़ा।
खुशियों का चिकना लेप नहीं,
धातु इसका मनहूस कठोर,
फेक फांककर, गेर गारकर,
भी ना बदले इसका भूगोल।
हज़ारों ख्वाहिश, लाखों सवाल,
करोड़ों विकल्प में अटके हैं,
चार दिवारी भ्रमण से हारे,
दुविधा में यू लटके हैं।
दूध का कर्ज़ या ज़हर का फ़र्ज़,
जीवन के तत्व से लागे हैं,
जो प्रभु भी बग्ले झांक पड़े,
चीखें दोनों आलापे हैं।
वजह वजूद के झूले में,
हैं न्याय सबूत के कुएं में,
भयभीत हो या हो भयमुक्त,
मिले उत्तर कर्म के कूल्हे में।
Saturday, January 5, 2019
सूखे दाग़ लहू के
सूखे दाग़ लहू के,
दीवार की बाहों में बसते थे,
आंसू भगोड़े गाल पर भागे,
विष खौफ का डसे थे।
कटे खिलौने एक तरफ,
कुंद था ब्लेड दूजी ओर,
सनी सी उंगली सुन्न पड़ी,
और मंद दिमाग़ ख़ाली चकोर।
खिलवाड़ खिलौने नहीं,
पर करती अपनी नियति,
गुस्ताख़ी जो गले पड़ी,
फबती ख़ुदा की नज़रें कस्ती।
अरे गलती से ही गलती होती,
बली का बावला कोई नहीं,
सुबकते हिम्मत की गुहार,
माफ़ी आपा से ज़्यादा सही।
Monday, December 17, 2018
चांद पर फुलवारी
चांद पर फुलवारी,
जहां धब्बों से काले साए ठुमकते।
कहीं फिसल कर ज़मीन पर ना गिर पड़े,
त्राहिमाम का राग पतझड़ गाने लगेंगी।
जहां चांद पर पांव थिरकते,
अब ज़मीन पर घिसड़ कर रेंगते थे।
ना दाना, ना पानी, ना मिट्टी और ना हवा,
ज़रूरत उस चांदी के फुलवारी की थीं।।
जमींदार देखे तो दहाड़े,
किसान देखे तो फुसफुसाए।
ज़मीन तो जानती थी बस पैदावार,
और मग्न मुग्ध होकर चरती थी गाय।।
क्या जुर्रत थी काले साए की,
जो ज़मीन के बीज को समझ कर दिखाते।
और क्या अक्ल थी ज़मीन के बीजों की,
जो काले साए की मदद कर पाते।।
चांद छिप जाएगा,
फुलवारी डूब जाएगी,
अध्ययन में मग्न नयन,
नीचे गिर जाएंगे।
ना ताकने का फ़ायदा,
ना झाकने का डर,
साए ही तोह है आख़िर कार,
आती धूप इन्हें ले जाएगी।।
Friday, December 14, 2018
दुविधा की विद्या
चला दिखाने जलवे उस विद्यालय में,
सुविधा जहां पर गुमसुम बैठे थीं।
अटेंडेंस लो तोह कुछ बोले ही ना,
काम भी कुछ करके नहीं दिखाती,
अकड़ के पीछे छिपता उसका डर,
सो अन्दर ही अन्दर अपने आंसू चाटती थी।
ब्रेक आया खेलने का,
सुविधा का तो डब्बा भी नहीं खुला था।
दुविधा के दर्द का था जादू,
के खाने में ज़्यादा डिमांड नहीं होती थी।।
ठंडी आह भरी और बैठ गया सुविधा के पास,
दुर्गंध दर्द की पास से ही महसूस होती थी।
स्नेह से लगाया जो गले,
मायूसी की अपच आख़िर में उगल दिया था।।
ना दुविधा का सुख उसके पास,
ना ही अशुभ सुविधाएं मेरे झोले में।
भूख हम दोनों को तड़पाती भरपूर,
सो एक दूसरे का निवाला खाकर शांत किया था।।
Wednesday, December 12, 2018
पैदा क्यूं हुआ था मैं?
मरने का ख़ौफ जो चुभ रहा हैं।
छिटक क्यूं जाता है हाथ से ग्लास,
हलक़ जो घबराकर सूख रहा हैं।
कमीज़ उतारलू क्या मैं?
कहीं बन ना जाऊँ सवेरे से पहले,
कंबल के भीतर कुछ गला हुआ।
छीड़ के बीच में कपकपाना,
वरना भीड़ के साथ तर हो जाना,
किधर था इनमें कोई अपना?
दफ़्ना दो, या जला दो,
वरना बाज तो भूखे है हर वक़्त।
कोई रोएगा, कोर्ड शोक मनाएगा,
बस कंधा जब दोगे तुम,
उफ़-आहं ना करते रहना कर वक़्त।
Tuesday, December 11, 2018
तस्ले
तस्ले पर रखकर घरौंदे के कण कण,
उलट दिया एक खाई के अंदर।
तीर्थ की आस से चल दिया ऊपर,
स्वर्ग पर मगर किसी और का मकान था।
Friday, December 7, 2018
लक्ष्मी के चरण
वहीं शालिग्राम आज तन्हा बैठा था।
दीपावली को बीते सप्ताह हो चुकीं थीं,
सो रौनक का दीप अब धूप में बदल चुका था।
लक्ष्मी के चरण कोमल कागज़ की तरह,
पत्तों और टहनियो के बीच में झूले थे,
हुआ स्नान संग गंगाजल के,
देखा तोह आज पत्थर मुरझाया हुआ था।
शालिग्राम देखे शिवलिंग की ओर,
शिवलिंग देखे सूर्य की ओर,
सूर्य देखे ब्रम्हांड की ओर,
और ब्रम्हा देखे उन सब की ओर।
लक्ष्मी कृपा से लाल हो उठी वह तुलसी,
जिस पर किसी ने गुलाब ना चड़ाया,
मंथन परिश्रम कि क्या आवश्यकता,
अमृत अब तुलसी के पत्तों में बस आया।
गए नरेश पश्चाताप करके,
और हुआ था कुछ का सर्वनाश,
समय के चक्र का संहार करके,
इतिहास के सहारे अब पुराण हस्ता था।
-Shashank Jakhmola
Friday, November 30, 2018
कम डालू क्या मैं?
आलू कम डालू क्या मैं?
कहता है अन्नदाता,
मजबूरियां है ज़्यादा,
ख्वाहिश कम डालू क्या मैं?
खाने में है तीखा ज़्यादा,
जलती अगर ज़ुबान है,
मिर्ची कम डालू क्या मैं?
जो रूठे इतना रहते हो,
फिर भी तुम कुछ ना कहते हो,
मस्ती कम डालू क्या मैं?
जीने की क्यों कोई आस नहीं,
लगती जो तुमको प्यास नहीं,
शोहरत कम डालू क्या मैं?
सब्ज़ी जब कम पड़ जाएगी,
और भूख तुम्हे सताएगी,
नीयत कम डालू क्या मैं?
-Shashank Jakhmola
सुस्त शेरनी
उबासी जैसे चुस्त पवन,
अंगड़ाइयां करदे भूस्खलन
चिंगारियां बरसाए तेज नयन।
फिर क्यूं सुस्त सी पसर गई यह शेरनी?
खूबी से भरपूर और हुनर से लैस,
अब अपने काले कैफ़ियत में घिरी हुई थी।
ऐसा कोनसा माजरा इसके मन में पकता,
जो आज बिजली के पंजे ढीले पड़े थे,
और सुस्त सी पसर गई थी यह शेरनी।
क्या उसके बच्चे बहुत चाटते थे,
या उसका शेर उसे बहुत डांटता था,
क्या बड़े फक्र से अपने शान को चुनी थी,
या फिर शान को नीलाम करके पेट काटती थीं,
जो सुस्त सी पसर गई थी यह शेरनी?
उम्र बहती जैसे बहता लहू,
टूटती आवाज़ से कैसे कहूं,
धक - धक दिल नहीं, अब सासें करने लगी हैं,
और सुनने की गुंजाइश भी तो ढलने लगी हैं।
कमाल है के दुनियां तब भी पूछे हैं,
कि आखिर कार क्यूं पसर गई हैं,
यह सुस्त सी शेरनी।
-Shashank Jakhmola
काले पत्ते
जिसके उस पार थे काले पत्ते।
ना वह खिलते, और नाही मुरझाते,
एक जगह पर स्थिर,
जैसे किसी के छूने का इंतजार कर रहे हो।
चाहू,
तोह इस दीवार को पल भर में तोड़ सकता हूं,
मगर क्यूं?
छू कर शायद नई ज़िन्दगी भर सकू,
पर अगर ऐसा ना हुआ,
तोह मेरे हाथ और जज्बात,
जलती टहनी की तरह काले पड़ जाएंगे।
Wednesday, November 28, 2018
भूखा बटुक
और फिर लताड़ा हुआ हो भाग खड़ा।
कभी दौड़े टंग टनाते दूध के डिब्बे के पीछे,
तोह कभी पाता है खुशबु नमकपारे के थैली के नीचे।
और फिर यह जीभ भी एक जंतु है,
परन्तु देखे तोह सिर्फ अपने नाक के सहारे।
सो भूखा बटुक भागे,
नाक फुलाकर,
जीभ फैलाकर,
स्वाद का मीठा गीत गाए।
कुछ पत्थर थे, कुछ गालियां थी,
और दुनिया भर की धूप।
बस समय समय की बात है बंधु,
क्योंकि कभी छाव भी थी, कभी रेत भी,
और कभी ताज़े दूध के दो घूट।