दौलतराम की गंगा मैली,
गंगाराम कंगाल बड़ा,
भ्रांति भ्राता मन से खेले,
आफ़त का बढ़ता घड़ा।
खुशियों का चिकना लेप नहीं,
धातु इसका मनहूस कठोर,
फेक फांककर, गेर गारकर,
भी ना बदले इसका भूगोल।
हज़ारों ख्वाहिश, लाखों सवाल,
करोड़ों विकल्प में अटके हैं,
चार दिवारी भ्रमण से हारे,
दुविधा में यू लटके हैं।
दूध का कर्ज़ या ज़हर का फ़र्ज़,
जीवन के तत्व से लागे हैं,
जो प्रभु भी बग्ले झांक पड़े,
चीखें दोनों आलापे हैं।
वजह वजूद के झूले में,
हैं न्याय सबूत के कुएं में,
भयभीत हो या हो भयमुक्त,
मिले उत्तर कर्म के कूल्हे में।
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