गोते में तय सफ़र,
तेरी तार से मेरी छत तक,
कमज़ोर थीं क्या चिमटी,
या था कोई पुरोहित,
करवा दी जो मुलाक़ात,
तेरे रेशमी रुमाल से।
कल्याणी थी महक,
कृपा गुलाबीपन,
एहसास रेशम का,
अभ्यस्त है उतावला मन,
सम्हालू उस कबख़्त को,
तेरे रेशमी रुमाल से।
जानकर या बूझकर,
या कहीं बेपरवाही,
तू धुन में अपनी चल दी,
मैं अनसुना सा थम गया,
पर कुछ अपना सा पाया,
तेरे रेशमी रुमाल से।
परसों से बरसों बाद,
छत्तीस सौ धुलाई के बाद,
किसी अड़ियल मैल के जैसे,
आभार से आसार होंगे,
पर काम चलाना पड़ेगा,
तेरे रेशमी रुमाल से।
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