सांसें चलती हैं
मस्तिष्क खिचता हैं
सपनों की सूरत तोह नहीं
मगर उनका जिस्म बिकता हैं
जाड़े की रात में गुम होता कोहरा
और उसमें भी बुलबुल रोता हैं
ऊंचे मकानों की खुली छत पर
कोई बेघर बावला सोता हैं
ख़ाली पेट पर चुस्की लेकर
सीना दूध सा उबलता हैं
सूखे लबों के पास आने पर
हलक़ आंच सा सुलगता हैं
रयाज़त से बनी ताक़त का
सय्यम चूर होता हैं
कड़वी कठोर बोली से
श्रोता दूर होता हैं
घुसते हो हमारे बिस्तर में
तब नर्माहट भी खिसकता हैं
जब कंधा सिर सम्हालता
तब खर्राटा भी सिसकता हैं
नया फ़िर गुनगुनाएगा
गया हुआ खो जाता हैं
जो कल नहीं बच पाएगा
वह आज ही रो जाता हैं
।
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