Saturday, February 16, 2019

सासें

सांसें चलती हैं

मस्तिष्क खिचता हैं

सपनों की सूरत तोह नहीं

मगर उनका जिस्म बिकता हैं

जाड़े की रात में गुम होता कोहरा

और उसमें भी बुलबुल रोता हैं

ऊंचे मकानों की खुली छत पर

कोई बेघर बावला सोता हैं

ख़ाली पेट पर चुस्की लेकर

सीना दूध सा उबलता हैं

सूखे लबों के पास आने पर

हलक़ आंच सा सुलगता हैं

रयाज़त से बनी ताक़त का

सय्यम चूर होता हैं

कड़वी कठोर बोली से

श्रोता दूर होता हैं

घुसते हो हमारे बिस्तर में

तब नर्माहट भी खिसकता हैं

जब कंधा सिर सम्हालता

तब खर्राटा भी सिसकता हैं

नया फ़िर गुनगुनाएगा

गया हुआ खो जाता हैं

जो कल नहीं बच पाएगा

वह आज ही रो जाता हैं


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