बढ़ती आग की लाली में,
कोई धनुष तीर तान बैठे
बूढ़े पीपल की डाली पे,
उठे चमकती शमशीर यू
नीले झरने के आंचल से,
हुई कुर्बानियां गाड़ी सुर्ख
गंदी गलियों की नाली में।
किसी झाड़ी के पीछे छिपा जत्था, अनगिनत चीखों के बीच अपने पुरषोत्तम का इंतज़ार कर रहा था। ख़ून के बौछारों की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती, ना मालूम पड़ती है ध्वनि उस धार की जो लोथड़े को चीर फाड़े। जिस कल्पना से किसी तट किनारे कीर्तन हुआ करते थे, वोह आज बेबसी से भरे घूटों को भी न्योता भेजे थीं। अच्छी यादें तोह नरमाहट सी होती हैं, मगर वर्तमान के डरावने सपनों ने अच्छे अच्छो के पिछवाड़े जमा दिए।
चींटी मक्खी मनाएं दावत
लसलसे ख़ून के रस से,
जो ना चूसे वों घूमे हैं
भद्दे गंध की उमस में।
बिन छटपटाए
कोई सो जाएं
निहायती भी ना रो पाए,
जो रो जाएं
वोह खों जाएं
कट गिरे सिर जो धड़ से।
एक बूढ़ा और उसका नाति खुशकिस्मती से जान बचा कर भाग सके, हालाकि दुआओं पर अभी भी ज़ोर दीया जा रहा था। नाक सिकुड़ी, लुंगी गीली और नयन ताके रस्ता, गुलाबी बादलों की मदद से। अचानक से तलवे फिसलते संतुलन के मारे, जो आगे कोई चट्टान सा साया रस्ता रोके खड़ा था। नन्हा अपने नाना के लुंगी के पीछे छिपा; अपनी आवाज़ को ज़ुबां, और ज़ुबां को दाड़ के पीछे छिपाए हुए था। धीमें से साया आगे बढ़ा।
शूरवीर था क्यूं
लालची जोख़िम का,
लालच थी क्यूं
शोले सी तालू पर,
ना थकान लागे इसको
ना दर्द जागे इसमें,
मोड़ कर पांव
जोड़ कर हाथ
पटक कर अस्त्र
धरती की लकीरों पर,
ऐसी गुलाबी बादलों की करतूत
अपनों से कैसे आवारा बनाती
और कैसा बंजारे साए का करिश्मा
पिछड़े लावारिस जीवन को बचाती।
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