Monday, December 17, 2018

चांद पर फुलवारी

चांद पर फुलवारी,

जहां धब्बों से काले साए ठुमकते।

कहीं फिसल कर ज़मीन पर ना गिर पड़े,

त्राहिमाम का राग पतझड़ गाने लगेंगी।

जहां चांद पर पांव थिरकते,

अब ज़मीन पर घिसड़ कर रेंगते थे।

ना दाना, ना पानी, ना मिट्टी और ना हवा,

ज़रूरत उस चांदी के फुलवारी की थीं।।

जमींदार देखे तो दहाड़े,

किसान देखे तो फुसफुसाए।

ज़मीन तो जानती थी बस पैदावार,

और मग्न मुग्ध होकर चरती थी गाय।।

क्या जुर्रत थी काले साए की,

जो ज़मीन के बीज को समझ कर दिखाते।

और क्या अक्ल थी ज़मीन के बीजों की,

जो काले साए की मदद कर पाते।।

चांद छिप जाएगा,

फुलवारी डूब जाएगी,

अध्ययन में मग्न नयन,

नीचे गिर जाएंगे।

ना ताकने का फ़ायदा,

ना झाकने का डर,

साए ही तोह है आख़िर कार,

आती धूप इन्हें ले जाएगी।।

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