Friday, November 30, 2018

सुस्त शेरनी

खर्राटे जैसे गर्जन,
उबासी जैसे चुस्त पवन,
अंगड़ाइयां करदे भूस्खलन
चिंगारियां बरसाए तेज नयन। 
फिर क्यूं सुस्त सी पसर गई यह शेरनी?
खूबी से भरपूर और हुनर से लैस,
अब अपने काले कैफ़ियत में घिरी हुई थी।
ऐसा कोनसा माजरा इसके मन में पकता,
जो आज बिजली के पंजे ढीले पड़े थे,
और सुस्त सी पसर गई थी यह शेरनी।
क्या उसके बच्चे बहुत चाटते थे,
या उसका शेर उसे बहुत डांटता था,
क्या बड़े फक्र से अपने शान को चुनी थी,
या फिर शान को नीलाम करके पेट काटती थीं,
जो सुस्त सी पसर गई थी यह शेरनी?
उम्र बहती जैसे बहता लहू,
टूटती आवाज़ से कैसे कहूं,
धक - धक दिल नहीं, अब सासें करने लगी हैं,
और सुनने की गुंजाइश भी तो ढलने लगी हैं।
कमाल है के दुनियां तब भी पूछे हैं,
कि आखिर कार क्यूं पसर गई हैं,
यह सुस्त सी शेरनी।
-Shashank Jakhmola 


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