Saturday, January 5, 2019

सूखे दाग़ लहू के

सूखे दाग़ लहू के,

दीवार की बाहों में बसते थे,

आंसू भगोड़े गाल पर भागे,

विष खौफ का डसे थे। 

कटे खिलौने एक तरफ,

कुंद था ब्लेड दूजी ओर,

सनी सी उंगली सुन्न पड़ी,

और मंद दिमाग़ ख़ाली चकोर।

खिलवाड़ खिलौने नहीं,

पर करती अपनी नियति,

गुस्ताख़ी जो गले पड़ी,

फबती ख़ुदा की नज़रें कस्ती।

अरे गलती से ही गलती होती,

बली का बावला कोई नहीं,

सुबकते हिम्मत की गुहार,

माफ़ी आपा से ज़्यादा सही।



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