सामने थीं कांच की दीवार,
जिसके उस पार थे काले पत्ते।
ना वह खिलते, और नाही मुरझाते,
एक जगह पर स्थिर,
जैसे किसी के छूने का इंतजार कर रहे हो।
चाहू,
तोह इस दीवार को पल भर में तोड़ सकता हूं,
मगर क्यूं?
छू कर शायद नई ज़िन्दगी भर सकू,
पर अगर ऐसा ना हुआ,
तोह मेरे हाथ और जज्बात,
जलती टहनी की तरह काले पड़ जाएंगे।
जिसके उस पार थे काले पत्ते।
ना वह खिलते, और नाही मुरझाते,
एक जगह पर स्थिर,
जैसे किसी के छूने का इंतजार कर रहे हो।
चाहू,
तोह इस दीवार को पल भर में तोड़ सकता हूं,
मगर क्यूं?
छू कर शायद नई ज़िन्दगी भर सकू,
पर अगर ऐसा ना हुआ,
तोह मेरे हाथ और जज्बात,
जलती टहनी की तरह काले पड़ जाएंगे।
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