Monday, October 14, 2019

My YouTube Channels


^This is my Channel शshank, where I tell stories and generally thoughts about various things. 

 

^This is my channel called SoftSpokenShank, where I make ASMR and relaxation videos.

Hope you enjoy these kinds of contents. 

Thursday, July 4, 2019

Happy Hymns


There is indeed something magnanimous about the mere existence of rain. Especially in here, the rains have arrived some weeks later than we originally would have preferred them. That means having to spend countless days in a climate which is sometimes either scorching, and other times sweating.
Having said that, I suppose the sanctity of monsoons would have been completely lost on many of us had it arrived the exact time we wanted it to. Having said that, we may also expect a certain case in which we would feel bloated with the abundant amount of rains to the point where seeing an inch of a golden speck on the sky would be the day to sing happy-hymns.
I guess it only enforces the idea of how much we ought to miss something only when it stays faraway from our reach. It is like being in a relationship for half a decade, things going as normally as much a chaotic fella fears it. When one of you asks the other about how much you love each other, you both casually brush off the question for you both take it for granted. Unless a time comes when you both have to live with a certain distance, do you realise the true worth each of you hold for the other person.
If that is going too far, then how about the childhood. I used to have this cartridge of a F1-Racing game. For as long as I had- and had it working- I never gave any care or attention towards it, being too busy playing Mario, Looney Tunes and all that. Until a day came when somehow it vanished itself off of my cartridge box. That day was the first time I got an existential crisis about how and why things go the way they go. Sure enough, however my mother ended up finding it, hidden in the chasm of the king-sized bed, for some reason.  
So, I may enjoy this season for as long as I can tolerate, and then go back to singing songs of praise for the sweaty summers, in the hopes it’ll return back to me like a misjudged lover. I guess it doesn’t hurt (even if it does) to see the things you cherish to be taken away from you, concisely so you may just realise, how much do you cherish that particular person, thing, or the season.
Namaste.  

Monday, July 1, 2019

नए भारत का सपना

    भारत जैसा विशाल देश महज़ किसी एक इंसान के सपनों के बूते ना चल सकता है, और ना ही ऐसे ज़माने की ओर हमें बढ़ना है जहां सिर्फ एक इंसान या संगठन की मंशा तक ही देश की तकदीर को समेटे रखा जाए।
    बल्कि, वास्तव में नए भारत का सपना उन ही बातों को बरक़रार रखना होना चाहिए जिन बातों पर हमारे धरोहर की नींव टिकी हुई हैं। हमारी अनोखी विविधता, जहां हमारी सोच मानों कोई खुला आसमां हो, जो हमारे सपनों के तारामंडल से उजागर किया जाता हो। मगर इस अनोखी विविधता के बावजूद, एक देशवासी होने के नाते कुछ मूलभूत ज़रूरतें हैं जो हर देशवासी चाहेगा उसे अपने देश में नसीब हो।
    आज हमें अंग्रेज़ो से आज़ादी मिले ७० साल से ऊपर हो चुके हैं। उसे प्राप्त करने का मक़सद था अपने देश की उन्नति एवं अवगती की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर उठाना, बिना किसी ग़ैर की हुकूमत के। लेकिन इन गर्मियों में जब पता चला कि देश में पीने के पानी की किल्लत बढ़ती जा रही हैं, कहीं ना कहीं ऐसा एहसास होता है के इस देश के नागरिक होने का धर्म हम पूरी ईमानदारी से नहीं निभा पा रहे हैं। हर वर्ष लाखों बेबस सूखे हलक से इस झुलसाने वाली गर्मी में अपना दम तोड़ देते हैं, और बड़ी निराशाजनक भाव से मानना चाहिए कि इन बेबसों की तादाद बढ़ने की संभावना किसी भी रूप से कम नहीं हो रही हैं।
    वहीं पर कुछ जगाएं ऐसी भी हैं, जहां वर्षा के कारण बस्तियां मानों तट, और सड़के जैसे समुद्र में बदल रही हैं। ऐसी जगहों पर पानी का नाम सुनकर नफ़रत बढ़ जाती हैं। हालाकि एक बड़ा अजीब सा संजोग है कि ऐसी त्रासदी में भी लाखों लोग डूबकर अपनी जान गवां बैठते हैं। मैं समझ सकता हूं, अगर आपके मन में यह सवाल उठता है, के क्यूं ना एक जगह की बाढ़ के अतिरिक्त पानी को अकाल पीड़ित इलाकों में बाटा जाए, तो मैं हर रूप से आपसे सहमत हूं। अफसोस बस इस बात का है कि यह योजना कोई ताज़ा नहीं है, और प्राचीन एवं प्रसिद्ध होने के बावजूद ऐसा कोई भी बंदोबस्त नहीं किया गया है। एक तरफ़ से देखें तो यह भी हमें विविधता दर्शाता हैं, फर्क इतना है कि ऐसी विविधता पर हमें किसी बात का गौरव नहीं मिलता हैं। 
    अपने इतिहास के प्रति सम्मान एवं महापुरुषों की प्रशंसा में गीत तो हम अक्सर गाते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन क्यूं हम किसी मत्स्यबुद्धि की तरह इन गीतों का फलसफा इतनी जल्दी भूल जाते हैं। या कहीं ऐसा भी हो की इन महापुरुषों की महान यादों की एहमियत की सीमा अब हमारे ज़हन में सिर्फ चंद गीतों पर ही सिमट चुकी हैं। बहुत ख़ूब एक गीत में लिखा है लुधियानवी साहब ने - "अपमान रचयिता का होगा, रचना को अगर ठुकराओगे।" 
    मगर मैं अपने शब्दों में कहूं तो - 
    रचयिता का कण उस रचना में,
    जिसे समझ बैठें मुरीद हो तुम,
    डसना घमंड ने हम ही को हैं,
    क्या जानो तुम, रचयिता का ग़म।
बेहराल, समस्या देखी जाएं तो सिर्फ़ पर्यावरण तक ही सीमित नहीं हैं। जब विविधता की बात छेड़ ही दी है, तो उसके विभिन्न रूपों के बारे में थोड़ी चर्चा करना अपना फ़र्ज़ समझता हूं। हम सब बख़ूबी जानते हैं कि भारत भिन्न भिन्न प्रकार की संस्कृति, भाषाएं, लिबास, भोजन, मान्यताएं, रिवाज़, ग्रंथ एवं पंथों से भरपूर हैं। विविधता के विषय का राजनैतिक उपयोग जहां बड़े से बड़े देशों की सत्ता आज कर रहीं है, वहीं पर भारत बेहद सौभाग्यशाली हैं उसे यह विविधता (या डायवर्सिटी) इतिहास, भूगोल एवं पुराण के सहारे विरासत में मिली हैं। हम एक ऐसी सभ्यता के सार्थी है जो उन्नति के पथ की दिशा बख़ूबी समझती थीं। ऐसे ही नहीं हमने गणित, राजनैतिक, विज्ञान एवं स्वास्थ्य संबंधित आविष्कार कर के दिखाएं थे। इतने उत्तीर्ण प्रतिभाशालियों का देश है भारत।
    वैसे तो हमारा देश आज भी आगे बढ़ रहा हैं, लेकिन अभी हम उस उन्नति के मार्ग से थोड़ा भटके हुए हैं। इसकी बड़ी वजह मैं समझता हूं हमारी विचारों और जिज्ञासा के प्रति विविधता का कम होना। अपने विचारों को प्रकट करने की निसंकोच आज़ादी पाने की कश्मकश में हमारा देश पिछले कुछ दशकों से काफ़ी बार जूझता रहा हैं। सेंसरशिप, जिसके खिलाफ़ बड़े बड़े लोग और संस्थाएं ज़ोर शोर से आवाज़ उठाती है, वह कहीं न कहीं आज भी एक काले साए की तरह हमारे ज़हन पर मंडरा रहा हैं। यह साए आपको कई जगह पर मंडराता हुआ मिलेगा - फिल्मों पर, किताबों पर, संगीत पर, कलाकारों पर, पत्रकारों पर, आलोचकों पर और बदकिस्मती से कभी कभार इसका अंजाम आम जनता को भी सहना पड़ता हैं। हालाकि, इन सब चीजों से यह ग़लत फहमी मत पालिएगा के मैं यह जताना चाहता हूं कि भारत देश में विचारों की आज़ादी नहीं हैं। बल्कि, कभी कभार हमने देखा है कैसे इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग फिल्में, पत्रकार, कलाकार और यहां तक आम जनता आदि भी करते मिलती हैं। जितना नुकसान वाक-स्वातंत्र्य के कमी से होता हैं, उतना ही बड़ा नुकसान इस स्वतंत्रता के ग़लत इस्तेमाल से भी होता हैं। जितना इस देश का हिस्सा कोई राजनेता या कोई बड़ी हस्ती है, उतना ही देश यह हम आम नागरिकों का भी है, और उतनी ही बड़ी ज़िम्मेदारी हम सब की है कि विचारों की आज़ादी का सही समय में सदुपयोग होता हुआ हम देखें। 
    इन ही विचारों की आज़ादी तहत मै एक टिप्पणी उन विचारों के ऊपर भी करना चाहूंगा, जो शायद इस भारत के अद्भुत कण को हानि पहुंचाने के योग्य हैं। यह टिप्पणी उस राजनीति पर है, जो अपने मुनाफे की भूख़ में इतना लीन हो चला हैं कि भारत तो छोड़ो, यह मानवता के प्रति भी कोई सम्मान नहीं रखते हैं। किस तरह से धर्म, जाति या संख्या के विषयों के तहत लोगों को भड़काने की कशिश की जाती है, अपने राजगद्दी के फ़ायदे के लिए। जब एक बार की केंद्र सरकार नागरिकों को निराश करती हैं, तब विपक्षियों के मन में इन बातों को सोच कर लड्डू फूटते हैं कि सरकार ने ख़ुद कितना फ़ायदा उठाया हैं। आम इंसानों की गुहार लगभग अनसुनी सी ही रह जाती हैं। सोचने वाली बात यह भी बनती हैं कि आख़िर कार किन वादों से तसल्ली पाकर जनता किसी को अंधाधुन मतदान देती हैं, और जब वादे पूरे नहीं होते, तब फ़िर वहीं घिसी पिटी गालियां सुनाने को तेयार रहती हैं।
    कहीं ना कहीं चंद शब्द मैं लिखूंगा इस इंसानी समाज के बारे में भी, जो भारत देश के प्रगति के लिए सबसे आवश्यक प्रणाली हैं। एक विशाल समाज का मूल्य उसमें रहने वालों के बीच आपसी तालमेल एवं संबंध से पता चलता है। यह कहने वाली बात तो नहीं, लेकिन भारत एक बेहद विशाल देश है, जिसकी जनसंख्या दुनिया में दूसरे स्थान पर आती हैं। ऐसे समाज में मुमकिन नहीं है सबका एक दूजे से व्यक्तिगत रूप से जान पहचान रख पाना। लेकिन ऐसा समाज का सही रूप से चलना सिर्फ़ एक ही चीज़ पर निर्भर है - वह है उस समाज में पलती इंसानियत से। सोचने की बात है कि इंसानियत का सही तौर से क्या मतलब है? क्या हर इंसान को इंसानियत जन्म लेते ही किसी वरदान की तरह प्राप्त होती हैं? हमें ऐसा सुनने को क्यूं मिलता है कि "इस दुनिया में अब इंसानियत नाम की चीज़ बची ही नहीं है"। एक नज़रिए से, इंसानियत ही वो है जो इंसान को पशु पक्षी से अलग बनाती हैं- वोह हो सकती है हमारी विकसित सोच, हमारा श्रेष्ठता का जुनून, और अपनी मनोस्थिति को जताने वाले हाव भाव। लेकिन दूसरी ओर से देखें, तो शायद इंसानियत या मानवता हमारी भावात्मक आकांक्षा की सबसे निराली निशानी हैं।
    जब खबरों में हम घिनौने अपराधों के बारे में सुनते हैं, कहीं ना कहीं इंसानियत की मान्यता पर, इस निराली निशानी पर सवाल उठने वाजिब हैं। शारीरिक, मानसिक या फ़िर यौन शोषण आज भी एक दुखाने वाली समस्या है। समूहों का उपद्रव मचाना, घोटाले होना, भ्रष्टाचार पर तेज़ लगाम ना कसना, काफ़ी ऐसी समस्याएं सामाजिक तंत्रों पर ज़ंग की तरह चिपकी हुई हैं। जैसे आम नागरिक अपने समाज का इकाई होता हैं, वैसे ही प्रशासन उसके सूत्र के बराबर हैं। बिन इकाई कोई अंक नहीं हो सकते, और बिन सूत्र के अंकों की बढ़ोतरी नामुमकिन है। दोनों तरफ़ से इन बातों को समझा जाएं तो इस समाज के उन्नति के लिए बेहतर हैं।
    आख़िर में मैं बस इतना कहना चाहूंगा कि नए भारत को लेकर मेरे सपने बड़े अनोखे तो नहीं हैं, क्यूंकि अब अनोखे सपनों, वादों और योजनाओं को सुन सुन कर उम्र निकलती जा रहीं हैं। और उम्र के साथ संयम भी फिसलता जा रहा हैं। सब सोच विचार कर मैंने यही पाया के सपनों से भरी दुनियां सुहानी तो होती है, लेकिन असल सुकून हकीकत के कारनामों से ही मिलता हैं। और अब कुछ आवश्यक कारनामों की इस देश को सख़्त ज़रूरत हैं।
    धन्यवाद्।
    
    
    
    

रचयिता की रचना


Sunday, June 2, 2019

बूंदा बांदी

दूर एक मकान की छत पर, एक डी. टी. एच. के साथ बंधा हुआ केसरी ध्वज चकबका रहा हैं। वहीं पर कबूतर, जो मुंडेर की आदि है, अब टीन एवं शाखाओं के नीचे बेसब्री से इंतज़ार में है - कब बादल छटे और अपने घोस्ले के दीदार हो। 

    चलो, कम से कम कबूतरों में संयम तो हैं, वरना इंसान तो बिजली वालों के लिए एक से बढ़कर एक गालियां अर्ज़ कर रहा है। खिड़की के बाहर नज़र पड़ने पर ज़ुबां अपने आप ही थम गई। जैसे जैसे अंदर चुप्पी चढ़ी, वैसे वैसे बाहर बूंदा बांदी बढ़ी।

Thursday, April 25, 2019

परत

जब आंसुओं का स्वाद होठो पर चढ़ता है
कड़वा एहसास बेबसी में बदलता है।
नक्सीर की टक्साल जाम हो जाती है
भेजे की नसे सुन्न सो जाती है।
ख़्याल और मिजाज़ से जब बू आती है
सीने में जकड़न क्यूं आती हैं।
परत आंसुओं की रह जाएगी
सूजन आंखों पर भर आएगी।
बस सेवरे ना मेरा तुम हाल पूछ लेना
भारी आवाज़ अच्छे बहाने न बना पाएगी।

Sunday, March 31, 2019

तस्वीरों की टोली

तस्वीरों की टोली

हमारी आपकी बोली

किसी राज़ की तरह

चंद कानों तक जा पहुंची।


आपका है हुनर

हमारी है जुर्रत

थोड़ा आपको बाटना

थोड़ा हमें है दिखाना।


कुछ हम पर आलोचनाएं

कुछ आप पर मज़ाक

जब तक दिए साथ

थोड़ा सा सेह लेंगे।


आप हो गए वीराने

हमें भी कई छोड़ गए

अनगिनत करके बहाने

चुन चुन मुंह मोड़ गए।


जान ना पहचान

ना एक दूजे के मेहमान

ना हुए कुछ हैरान

ना मिला कोई पैग़ाम।


हमारी पलकें झपकी

आपकी आंखें चड़ेंगी

बुलबुल बटुक के साथ

ग़म की सरगम लड़ेगी।


बसी बासी ये यादें

घिसे पिटे है अल्फ़ाज़

जिस दिन मिलन होगा

टूटेगें सबके राज।

Monday, March 25, 2019

बहाने को बहाना

बहाने को बहाना

थोड़ा दूर, थोड़ा दूर


अंखियों का आइना

होगा चूर, होगा चूर


दबी सी आवाज़ हैं

बासी अंदाज़ है


बिगड़े मिजाज़ पे

डालो धूल, डालो धूल


बाहाने को बहाना

थोड़ा दूर, थोड़ा दूर।


खिलखिलाती थैली हैं

बारिश में जो मैली हैं


छप छप पांव पड़े

है ज़रूर, है ज़रूर


डब्बो की ताल है

थाली का कमाल है


मंडली में थिर्के

जाएं झूम, जाएं झूम


बाहाने को बहाना

थोड़ा दूर, थोड़ा दूर।।


गोल मटोल मुस्कान

लेंगे चूम, लेंगे चूम


शर्माके भागों

तो ज़रूर, तो ज़रूर


आवाज़ अपनी हल्की है

बातें दो पल भर की हैं


वाह वाही ने किया

हैं मशहूर, हैं मशहूर


बाहाने को बहाना

थोड़ा दूर, थोड़ा दूर।।।

Saturday, March 23, 2019

रेशमी रुमाल

गोते में तय सफ़र,

तेरी तार से मेरी छत तक,

कमज़ोर थीं क्या चिमटी,

या था कोई पुरोहित,

करवा दी जो मुलाक़ात,

तेरे रेशमी रुमाल से।

कल्याणी थी महक,

कृपा गुलाबीपन,

एहसास रेशम का,

अभ्यस्त है उतावला मन,

सम्हालू उस कबख़्त को,

तेरे रेशमी रुमाल से।

जानकर या बूझकर,

या कहीं बेपरवाही,

तू धुन में अपनी चल दी,

मैं अनसुना सा थम गया,

पर कुछ अपना सा पाया,

तेरे रेशमी रुमाल से।

परसों से बरसों बाद,

छत्तीस सौ धुलाई के बाद,

किसी अड़ियल मैल के जैसे,

आभार से आसार होंगे,

पर काम चलाना पड़ेगा,

तेरे रेशमी रुमाल से।

Saturday, March 16, 2019

शर्म कर, लड़की!

    "शर्म कर, लड़की! पढ़ ले!"

कशिश ने अपनी नज़रें गणित की कॉपी में ही छिपाएं रखी। बच्चो और मैडम जी की या तो कभी नज़रें, या फिर ताने घूम फिरकर कशिश के ऊपर चढ़ ही जाते हैं।

   उतने में सर जी - मैडम जी के पति भी बोल पड़े, "चलो भई, सब प्रार्थना करना कशिश के लिए कि इसकी बुद्धि कल इम्तिहान के वक़्त चल पड़ें।"

    बच्चो की आवाज़ अक्सर एक सी होती हैं, मगर हसने का तरीक़ा नहीं। हर्षित खिलखिलाकर हस्ता, परिधि जोर जोर से, वहीं पर तनिष्क हथेली से होठ दबाएं खास रहा था। लेकिन कशिश के लिए इसमें हसने जैसा कुछ ना था। अगर होता भी, तो मैडम जी तब भी कशिश को दांट देती।

    "कंझाली सी! सवाल एक भी ना होता, पर देखो कैसे दांत फाड़ रही हैं।"

    इतना तो सहना अब आम था। डर तो दरअसल मैडम की मार से लगता था। शुरू में थप्पड़ों का प्रकोप था। पर फ़िर एक टाइम आया जब कशिश के पिता ने अपने बेटी के गाल को कुछ लाल सा पाया। कशिश के पिता ना तो गुस्सैल थे, ना हीं नासमझ। पता था कशिश का पढ़ने लिखने में मन नहीं हैं, सो मैडम जी के सामने बस एक गुज़ारिश की।

    "चाहें तो फेल कर दीजिए, पर इतनी ज़ोर से ना मारे।"

    "फेल तो इसने वैसे भी होना हैं," मैडम जी ने दो टूक बोला। "मैंने स्वाति को बोला भी के इसपर ध्यान रखो, पर आप लोग तो सुनते ही नहीं।"

    यह बात सही नहीं थी। माँ बाप सुनते तो थे - चाहें यहां ट्यूशन में मैडम की, वहां स्कूल में बाकी टीचर्स की, यहां तक की घर में आने वाले पड़ोसियों की भी। जब घर में चाय पीते वक़्त बातें होती।

    "आजकल स्टैंडर्ड भी तो कितना गिर पड़ा है।" दुग्गल साहब उंगली के बीच टेढ़े प्याले को दबाएं बोल पड़े। "अब आप स्मार्टफोन को ही ले लो। पांच साल पहले पच्चीस हज़ार का लिया था मैंने! पर आजकल तो साले मजदूरों के पास भी ऐसे फ़ोन दिखाई देते हैं।"

    पिता ने चुपचाप हामी भरी, और एक चुस्की ली।

    दुग्गल साहब बोलते रहें। "वहीं पर स्कूल के बच्चों के पास भी अब स्मार्टफ़ोन हैं। और ऊपर से इंटरनेट इतना सस्ता, पूरे टाइम ऊट पटांग चीज़े देखते रहते हैं।"

    कशिश के हाथ तो मुश्किल से फ़ोन लगता था। माँ के पास एक सस्ता सा कलर फ़ोन था, उसमें दो गेम खेल खेलकर मन ऊब गया था। और जो पिता का स्मार्टफ़ोन था, दुग्गल साहब की मेहरबानी से अब वह कहेंगे - 

    "शर्म कर, लड़की! सुना नहीं, क्या बोल कर गए अभी दुग्गल अंकल?"

   कशिश हालाकि अपने धुन की मीरा थीं, वह यकीनन दुग्गल की बातों का मतलब समझती थी। चेतन का लिखा वह ख़त, जो वास्तव में परिधि के लिए लिखा गया था, पर पहले कशिश के हाथ लगा था। उस ही को शायद 'ऊट पटांग' कहते हैं। परिधि की मां के पास स्मार्टफ़ोन था, और परिधि बताती एक ऐप हैं, जिसमें लोग रोमांटिक गानो पर अभिनय या फ़िर डांस करते हुए वीडियो डालते हैं। वह ऐसी ही वीडियो बनाने का मज़ाक करती थी, चेतन के साथ। कशिश को मज़ाक नहीं, पर जलन लगती थी।

    फ़िर परिधि ने चेतन के लिए एक ख़त लिखा, जो इस बार टीचर के हाथ लग गया।

    "शर्म कर, लड़की! पापा इतनी मेहनत करे पढ़ाने के लिए, और देखो कैसे नैन मटक्का करे बिटिया रानी।"

    परिधि की मां ने टीचर के सामने ही अपने बेटी के गाल पर दो जड़ दिए, वहीं पर चेतन को प्रिंसिपल साहब ने टीसी पकड़ा दी। परिधि कुछ दिनों तक मायूस थीं, लेकिन बाद में जैसे सब भूल चुकीं थीं। कशिश तो परिधि से भी ज़्यादा जल्दी चीज़े भूल जाती। इसी वजह से उसे मार ख़ानी पड़ती थी।

    परीक्षा शुरू होने में काफ़ी समय था। उससे पहले ऐनुअल फंक्शन भी होना था। यहां पर माता पिता चाहें तो आ सकते हैं, वरना बच्चों को तो वैसे भी आना ही था।

    जो हर साल होता है, वह इस बार भी हुआ। लड़कियों का डांस शो, लड़कों का एक्रोबेटिक्स, और फ़िर खड़े होकर एक देशभक्ति गीत को गाना। आख़िर में- जिस चीज़ पर सभी की नज़रें थीं- वह था ख़ाने के आइटमो का स्टॉल। जो एक बार खुला, तब कहां किसी में तमीज़।

    फंक्शन ख़त्म नहीं हुआ था, पर कशिश ने स्कूल के बाहर घूमने का सोचा। पैदल चलकर जाओ तो घर महज़ दस मिनट की दूरी पर है। बाक़ी बच्चे तो पागल थे, मगर कशिश को पेटीज फ़ीके और ठन्डे लगे, सो अब वहां रहने का कोई फ़ायदा नहीं था। दिन के दो बज रहे थे और सूरज आसमां में कहीं खोया हुआ था। कशिश के पांव धीमे पवन के संग चलते थे।

    चलते चलते सामने चेतन दिख गया, पेड़ के सहारे खड़ा। उसे स्कूल से निकाले हुए डेढ़ हफ़्ते हो चुके थे। लंबे, बिखरे, पसीने से लथपथ बाल रखने के लिए उसे काफ़ी बार डांट खानी पड़ती थी। मगर अब मुर्गे जैसे बाल और बदन पर एक जैकेट। पहली बार में पहचान में नहीं आया था।

    "और बे, कैसी हैं तू?"

    कशिश ने अपना सर हिलाया और चेतन उसके करीब आ गया। उसके पीछे कोई दो लड़के और थे, जो उसके स्कूल के नहीं थे। कशिश ने पूछा कि कौन है यह।

    "भई है मेरे इलाक़े के। यह अमन और यह प्रतीक।" पहले ने हाथ हिलाया, दूसरे ने मुंडी। दोनों चेतन से उम्र में बड़े लगते थे। "और, मज़ा आया नाच कर?"

    घर में तो कशिश बड़ा नाचती हैं, अकेले टीवी के सामने। कोई रोकटोक या खिल्ली उड़ाने वाला नहीं होता ना। स्कूल में, जहां पर डांस टीचर के साथ अन्य लड़कियां और होती हैं, कशिश को अजीब सा लगता था। परिधि के अंदर बड़ी हिम्मत थीं, सो औरो के सामने बिल्कुल अच्छे तरह से नाचकर दिखाती थी। कशिश एक तो शर्मीली, ऊपर से स्टेप्स भूलने की बीमारी।

  चेतन अपने आप ही हसने लगा। "मुझे पता है परिधि अभी भी नाच रही होगी। पागल सी।" परिधि और चेतन अब नहीं मिलते थे, फ़िर भी कशिश को मालूम था के परिधि ने चेतन का ख़त अभी भी सम्हाल कर रखा था।

    चेतन ने हस्ना बंद किया, फ़िर पूछा। "और अब, वापिस घर के लिए?"

    कशिश का वास्तव में मन नहीं था घर वापिस जाने का, लेकिन फ़िर जाती भी तो कहां। वह जाने के लिए क़दम बड़ा ही रहीं थीं। तभी चेतन बोल पड़ा।

    "हम लोग ऐसे ही टहलने जा रहे। वह बस अड्डे के पीछे वाले इलाक़े तक। तू भी आजा, मस्त रहेगा।" कशिश ने हामी नहीं भरी, सो लड़के उसकी चुप्पी के बूते उसे ले घूमाने ले गए। 

    बस अड्डा तो महज़ नाम का ही था। एक जगा जहां पर एक दिन हर बस वाले ने रुकने का निर्णय लिया था। रुकते तो वह कभी पेशाब करने या तो फ़िर टांग सीधी करने। देखते देखते लोग वहीं से बस में चड़ने लग गए। मगर उन्हें बस में नहीं, उसके पीछे फ़ैले हुए खेतों से गुजरना था। पता नहीं कहां पर जाकर यह खेत ख़त्म होते हैं, और कहां से दूर खड़े घने जंगल शुरू होते हैं। 

    कशिश ने सोचा, आज जाकर पता कर ही लेते हैं। 

    पर वह ज़रा अनजान थी। खेतों के बीच में आते ही, चेतन ने निकाली एक बोतल, अमन ने एक थैली, और प्रतीक ने प्याले।

      "चल, तू भी लेले," चेतन हवा को चूमते हुए बोला।

    कभी कभार देर तक सोने के बावजूद सिर में दर्द रहता हैं। चाहें कितनी दही आप खा ले, शराब इतनी जल्दी सांसों को नहीं छोड़ती। कितनी चीनी चबा ले, तरकारी का तीखापन ज़ुबान को तब भी काटता हैं। और वापिस शहरी इलाकों में आप चले आओ, जंगली वादियों ने तो कल्पना के संग आपके ज़हन में बहाने बना कर एंट्री मार ही लेनी हैं। कोई चीज़ जो आपको मिलती है, और आपके साथ हमेशा रहती हैं, आपका स्वागत करने के लिए।

    जिस वक़्त कशिश वापिस अाई, बहुत देर हो चुकी थी। खुले आसमान की राते जहां नीली होती हैं, वहीं पर बादलों के बढ़ जाने से पॉलिश उतारे रूई सी लाली छाई हुई थी। चेतन और तो पहले ही चंपत हो चुके थे, गनीमत रही कि कशिश को रास्ता याद हो चुका था।

    अपनी गली में घुसते ही कशिश ने मोहल्ला अपने चौखट पर जमा पाई।

    "अरे आ गई देखो। स्वाति!"

    मां भागते हुए कशिश के पास अाई, गले से लगाया और गाल पर पुचकिया देने लगी। मोहल्ले का एकांत धीमे से बुदबुदाने में तब्दील हो रहा था। कुछ ने राम नाम गाए, कुछ ने ठहाके लगाएं, और दो चार अपनी मुंडी घुमाएं। मां के मुख पर मुस्कान थीं।

    जो अचानक से टूट गई। मां ने एक लम्बी सांस ली। बूह तो यकीनन कशिश के मुंह से आ रहीं थीं।

    भीड़ छटी। मां ने कशिश को कुल्ला कराया। तब तक घर में दुविधा की दुर्गंध फैलती गई। आख़िर में रहें तो सिर्फ़ दुग्गल साहब, चौथे टेढ़े कप को पकड़े। चाचा जी चेतन के घर गए, उसे "उठाने" के लिए।

    चूंकि इसकी मां गांव में रहती थीं, चेतन अपने मामी के साथ यहां रहता था। मामी को ना पता था, ना परवा थीं, अपने भांजे को लेकर। "मामा ज़िंदा होते तो टाईट करके रखते इसे। मैं अकेले क्या क्या करू? इसकी मां ने मेरे मत्थे मड़ दिया इसे। जहां आपको मिले पकड़ लेना।"

    ना चेतन मिला, और ना हीं कशिश के परिवावालों ने ज़्यादा कोशिश की। उन्होंने इतने में ख़ैर मनाई कि लड़का कुछ "ऊट पटांग" नहीं करके गया लड़की के साथ। कशिश जानती थी वह पढ़ाई में कमज़ोर है। पर असल सच्चाई तो बातों में थी, जो कोई मोहल्ला फैलाता है। कशिश टॉपर भी बन जाती, तब भी कौनसा पिता ने वापिस स्कूल भेजना था।

    और फ़िर दुग्गल साहब तो थे ही, पिता के ट्रस्टेड एडवाइजर। "इसे सिलाई बुनाई का काम सिखवा दो। वरना, क्या खाना पकाना आता हैं क्या इसे?"

    परिधि के घूमने फिरने पर भी लगाम कस गई थी। बालकनी से कभी दिख जाएं तो बात अलग है, वरना मिलने की गुंजाइश कशिश के बाहर निकालने से भी कम थी। नहीं थी सो ना ही सही। कुछ दिनों बाद अगर मौक़ा भी मिलता, तब भी कशिश परिधि की ओर ना देखती। 

    फ़िर एक दिन उसे याद आया। जिस दिन परिधि का जन्मदिन था। कशिश बालकनी से झांकती रहीं, मगर मानों जैसे कि चक्का जाम का ऐलान हों गया हो। पिछले रात जो बारिश हुईं, अब सूर्य की किरण दूधी सवेरे पर हल्दी का काम कर रही थी। लेकिन जो कशिश के नाम पर अपच पड़ी है, उसका क्या...

    हिम्मत होती नहीं है, बल्कि करनी पड़ती हैं। मां कमरे में बैठें दाल साफ़ कर रही थी। कशिश का ख़ून उसके पैरों के अंदर जम रहा था। मां ने अपनी नज़र घुमाई, कशिश के गालों पर टीसे लग रहीं थीं। 

    "क्या हैं?"

    कशिश के खुद की नज़रें मां के हाथों पर टिकी हुई थी, और कैसे मा थाली में दाल को झूला रही थी। थाली को देखते देखते उसने बताया कि वह परिधि के घर जाना चाहती है। 

    थाली हाथ में थमी, और मां की आंखें और गहरी लगने लगी। इतने समय बाद, कशिश को अंदाज़ा हो गया था कि अब वह क्या कहेंगी।

    "तेरे को बोलू मैं शर्म करने को, तुझे ना कोई परवा। क्यूं रे लड़की, है ना?"

    कशिश ने कोशिश की, लेकिन मन पर काबू नहीं था।

    "बेवकूफ़ बोलना हैं तो बोल ले। पर मैं बेशर्म नहीं हूं।" कशिश के फटाक से कहा। मां एक झटके से खड़े हो गई, और कशिश ने एक क़दम पीछे लिया। "क्या बोली?"

    कशिश अपने मन का सारा भार उड़ेल देती, सिर्फ़ मुआ भय उसकी ज़ुबान पर चौकड़ी ना मारता। बेटी पलके झपका रहीं, आंसुओं को दूर भगाने को। मां भी अपना सिर झुकाए, फुफकार भरी सांसों के बूते ख़ुद पर संयम पने की कोशिश कर रही थी। 

    "जा," मां आख़िर कार बोली। "लेकिन पिताजी के आने से पहले ना अाई, तो देख तेरी कोई ख़ैर नहीं।"

    कशिश ने अपना सिर हिलाया। उस वक़्त पता चला कि कैसे किसी बोझ के टल जाने पर चेहरा अपने आप की मुस्कुरा देता हैं। कशिश वापिस अपने कमरे में जा रही थी, थोड़े से ढ़ंग के सूट पहनने के लिए।

    "अच्छा सुन," मां ने उसे आखरी बार रोकते हुए कहा। "मैंने तेरी ट्यूशन वाली मैडम से भी बात की है। तेरे पापा घर साढ़े छ बजे तक आते है। पढ़ने का जी हो, तो एक घंटे के लिए उसके पास चले जाना।"

    कशिश ने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन मन ही मन उसकी। ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। सच में, पांच घंटे के स्कूल से तो बेहतर था एक घंटे की ट्यूशन। डांट, मार और मज़ाक, एक घंटे के लिए झेल लिया जाएगा। 

   कशिश ने एक झटके में अलमारी खोली और तेय्यार होने लगी। मां ने हाथ में सौ रुपए थमाए, कोई गिफ्ट खरीदने के लिए। कशिश को मालूम था, असल गिफ्ट तो ख़ुश खबरी होगी, जो सबसे पहले जाकर वह परिधि को बताएगी।

    

    

Saturday, March 9, 2019

CHEQUE

“Whenever most needed, the stupid pen stops working!”

Nadeem unscrewed the lid and took out the refill; It was half empty.
Weeks have passed since the winters were gone. No reason for the ink to
freeze inside the tube, like that. He recalled the childhood days of using
fountain pens. Used to cost about ten-rupees extra, twenty more, if you don’t
have the ink-pot. He thought he was being very smart, and would be saving
money by skipping the usual pens. Alas, if only those pens wouldn’t leak the
damn ink out as he was writing.
Not that he had improved in his studies; something he blamed on that
damn twenty-rupees fountain pen. Seeing this, his father had managed to
buy him an expensive, hundred-rupees pen; again, a fountain pen. Nadeem
still kept failing. Those hundred rupees eventually ended up costing him the
bond between them.

“Sheh!” He threw the pen away. Least the nearby store here opens quite
early, thankfully.

At the store, his eyes went towards a fountain pen. He could feel the air
inside his chest getting heavier. The pen looked as generic a fountain pen
can look: having a dull brown body with yellow rim around its chest. He
thought at this point he would be willing to hate these pens. If only these
pens were lucky- if not useful- not only could Nadeem have passed the
exams with flying colours, but would also have gotten himself a nice desk-
job and a protection from the eternal scorn in his father’s eyes.
But Nadeem had thought wrong. “How much does this pen cost?” he
ended up asking, and was surprised to hear the price. Ten rupees, that was it.
He once thought of how the previous fountain pens he owned were absolute
garbage. Then why was it that Nadeem could not contain himself from
purchasing this one?
Because he had found an ink-pot; not his, but of the previous tenants. He
had found it four days after moving in. Made by a brand named InPhil;
totally foreign to Nadeem. But the box was unopened, with lid sealed, brand
new and never used.
He rushed back to his room, not dissimilar to how he used to rush back
towards his home, in Mehuwala, his area. Now it belongs to his elder
brother, Usama and his wife, Sheema. Unlike Nadeem, Usama was smart; a
man with a job in the public sector. A respectable job with benefits,
something father had hoped Nadeem would also end up with.

Usama had called Nadeem yesterday, to give an update on father’s
condition. Unwell, with no real chance of improvement. Mustn’t keep high
hopes
, Usama told Nadeem. Nadeem feared the prospect of needing to
contribute towards his father’s medical bills, but Usama already cleared the
air. I can take care of him. The expenses will be reimbursed by the
department, anyways
. Nadeem had not said anything, then.
But no, he couldn’t and wouldn’t take it. Sure, he is just an electrician,
and maybe sending a meagre cheque of twenty-five hundred rupees was like
dropping an Elaichi (cardamom) in a pool of Biryani. But in no way was

Nadeem completely worthless. Positively, he wouldn’t have the courage to
go and meet his father, as he his last breath would bubble out of the oxygen
mask, all the way to the almighty; that does not mean he cannot share his
little responsibility as a son. Nadeem was a bit too fond of the melodramatic
movies- especially the ones starring Bachchan and Mithun- and was glad he
had no mother to pour an emotional fountain over his head, as the cheque
would reach Mehuwala.

He twisted the cap of the pot, breaking the seal with feeble cracks. Back
then, fountain pens had a plunger on its back. In this one, the back was
rubbery, which you had to lightly press for the ink to find its way inside. The
ink would seem black, if not for the fresh morning sheen that revealed a hint
of blue, although a light-bulb would also suffice. He first made a few
squiggly lines on a rough paper, just to get ink running through the tip. The
smell of the pen and the blue fluid gave him nostalgia. But he could not
afford to delve too much into it. He had a cheque to sign on.

Usama,
Take this amount. I cannot afford to send you more, otherwise I would
have. I know you have stated that the bills will get reimbursed. But make
use of my money when you prepare for his final rites. Lots of work here,
and I may not get the days off to see him. Hopefully you won’t throw away
this cheque.
Your brother, Nadeem.
-
AMOUNT(IN WORDS) - Two thousand and five hundred rupees
only__
 

SIGNATURE - Nadeem Qureshi
-
He knew Sheema bhabhi would be trying her best at reconciliation; but
he also knew Usama would now refuse to talk to him, once the cheque
reaches him.
That was perhaps the only quality common between them: they were
stubborn than a rude lamb.
Like Nadeem knew, that Father wanted some grandchildren, so that the
old man can pass time and also to ensure the family name continues on. But
Usama always found a way to turn that question away. That means maybe
even Nadeem would never get to see some nephews or nieces. Even if they
do have kids, Usama is too wise to let his wife use them for patch-up tactics
between the two brothers. Nadeem never gave it a much thought, but he
would also have to get married one day. Or on second thought, perhaps he
would always struggle to make ends meet; always struggle to find a thing he
never got to cherish: a proper, healthy and a happy family.
Nadeem grabbed a brown envelope- to make it weirdly official- folded
the cheque in half, placed it on the middle of the letter, and then folded the
letter, as well. He blew open the mouth of the envelope, and dropped the
papers down, then closed it. He kick-started his scooter, knowing soon
enough the engine would be begging for more fuel. Petrol Pump was a
couple of blocks away, but in the opposite direction to the road leading to
the Post Office.
He shook his head. “Fine.” He turned his scooter around, to face the way
to Petrol Pump. Guess he would take the day off. His sneezes were getting
worse, anyways.

Nadeem wasn’t the kind of man to get impatient too quickly; he had
somehow managed to live through his father’s antics, after all. But the sight
of Post Office always made him impatient, for some reason. They seem like
such a worthless place to spend your time at. Say, you could be at hospital to
feel better, or you could be stuck at the police station to feel worse. Post
Offices invoked none of such emotions. Just a phase of nothingness
elongated even more by the ever lazy staff.
His chance finally came, and he slid the envelope through the window.
“Speed post.”
His address was written on the back of the envelope long before, with a
‘normal pen’; he kept bunch of these envelopes, to save himself the hassle at
the last minute.

The woman behind the counter kept typing on the keyboard as if
untouched by the envelope against her arm. She finally dragged it closer
with her fingers. “Fifty-two rupees, sir.”
Nadeem stared at her, but received no reaction. He took out his wallet,
hoping he was not short on pennies, unconvinced at the fact that speed-post
can cost anything more than fifty rupees.
She slid out a paper, “Sign here.” Nadeem asked for her pen, forgetting
his brand new ten-rupees fountain pen at home, on purpose.
Nadeem noticed a food-corner on the opposite side of the office. Before
returning home, he decided to eat two sandwiches right there. Not his usual
choice of breakfast, even though there was nothing bad about them. The
breads were big with a nice and thick spread in-between. Too bad he would
need to return back to his place to get some coffee, since the place doesn’t
serve.
But he was not really thirsty for coffee, otherwise he would have actually
rushed back home. He kept the engine running just over the speed of thirty,
seeing the usual sights through in motion. He wore no helmet, since no
traffic-hawaldar used to hang around anywhere near. Two years had passed
since he had moved into the city, fixing screws and biting wires under
contracts. That’s what his father also used to do all day, so that his sons
won’t not end up doing the same thing. Nadeem was happy that someone
listened. The pay was not always good, but at least the work was plenty. He
was dreaming about opening his own store, similar to his father's; although
the place was later sold away by Usama.
Nadeem was unsure what would he name his own workplace. Naming it
after your own name was a stale idea, but you can’t name it anything fancy,
either. It’s not a barber shop or a beauty parlor, just a space crammed up
with tools and junks and barely enough space to breath; the way an every
electrician’s place is meant to be.
Nadeem went straight into the kitchen once he returned. Turning the
knob on, he clicked the lighter’s head a few times before the fumes sensed
the spark. He’d recently bought a second-hand fridge: a small ‘Kelvinator’
one.
He reached in to grab the milk container, realising it was light in weight;
a reminder of how he was forgetting to stock in on important things, or
maybe a reminder that he indeed was an adult, now. Still, it was enough for
a cup of coffee, so he not at a total loss. He poured himself a cup, grabbed

the almost finished packet of the ‘Marie Gold’- its head tied with an elastic
band- and went to the other room; sat on the chair beside the table where the
pen and pot laid opened.
While his heart was warm with relief, his belly was tingling with
nervousness. Within three days, or four at the most, Usama will receive the
cheque. Nadeem had taken out the SIM-Card yesterday, once their
conversation was over. They could try and reach out to one of his
contractors, so he would need to tell them to keep mum on the topic. He’d
never provided his address to them, unless they roam around at each and
every corner of the city looking out for him.

Nadeem took a sip, feeling the burn passing from his tongue, through his
chest, into his belly. Maybe he should have gone out to work, Dinesh had
mentioned he needed someone to fit wires at a place. But that was for the
early morning; by now, Dinesh must have found someone else, and would
give nothing but shouts towards Nadeem, should he choose to go now.
There was no point in worrying now. He was used to making mistakes-
be it during childhood, at work, or even in his current life- and was also used
to taking the outcomes at his face. The past two years have taught him he
could take care of himself, even if with the dearth of satisfaction.
He took another sip, then placed the cup on the table. Both the pen and
the ink pot were sitting on top of the rough paper with squiggly lines.
Screwing the caps of both the things, he grabbed the rough paper to throw it
away.

Nadeem recoiled at noticing the squiggly lines gently moving from its
place. He brought the paper closer and to his utter shock, the ink was starting
to slip against the paper, forming into blue droplets as they fell onto the
white floor, and his grey shirt. He dropped the paper right on the table. It
appeared as if nothing was ever written on it, before. He took out the pen
again, still filled with the InPhil ink, and began to write random words,
numbers, phrases and squiggly lines on the paper; Filling the paper as
violently as he can. Then he raised the paper up in his hands, again. He ran
his thumb against the surface, to see if the paper had any sort of oily
substance applied on it to cause the ink to slip, but it didn’t feel like so.
He let out a deep breath. Perhaps he actually caught the fever, after all; or
the fate was playing tricks on him, for what he just did. Just as he was
bringing the cup closer, an uncalled-for sneeze jerked his cup, and a light
brown drop of coffee found its way onto the paper.

But now that Nadeem began noticing more attentively, the ink was
indeed slipping away from its place, even if at a snail’s pace. Sure enough,
the things that he had written at the end were starting to reach closer to the
edge, with things above them also coming closer, joining each other to turn
into a wet lump of blue. Even though coffee stain remained at its place.
Soon enough, the paper also slipped out of his fingers, as he began to pull
his hair. The letter and the cheque, both were written with the same pen, the
same ink. By the time it would reach Mehuwala, would his signature and the
letter remain intact? That mere thought made him lose the appetite for
coffee. What was he supposed to do, now? Call his brother, and tell him to
check whether the ink on the papers is intact: one of which bore the
unconventional words of farewells, folded inside it the amount to write off
the whole relationship, once and for all?

Forget the hair, Nadeem now wanted to tear his teeth out. What was he
seriously thinking? He looked around his room, hoping to notice somewhere
sneaking at a corner, the justification for his actions. His vision burned, lips
quivered and throat felt bulkier once he realised the only living, breathing
and despicable thing present in the room was himself.
He rushed towards his bed and pulled away the mattress, the SIM-Card
lying on the wooden base. His nails struggled to pick up the SIM, and once
he did, his fingers shivered to an extent that it slid under the bed. He crawled
inside, hands brushed the dusty floor, the dust making his sneezes even
worse.
“Yes!” He managed to grab it. His phone had dropped on the floor,
since it was placed on the mattress. “Great.” A minor crack on the edge of
the screen. The fate was really scolding him from all the places it could.
He inserted the SIM and switched-on his phone. And then.

He just placed the phone on the table, and decided to finish his coffee,
but not before brushing off the dust on his clothes. Whether his brother
receives the speed-post, regardless of what he finds inside the envelope,
Nadeem would pick up his brother’s call. Not just that, he would also
provide the address and invite them, should they ever feel like visiting, of
course. Hopefully Nadeem would have his own workplace, by then.

Saturday, February 16, 2019

सासें

सांसें चलती हैं

मस्तिष्क खिचता हैं

सपनों की सूरत तोह नहीं

मगर उनका जिस्म बिकता हैं

जाड़े की रात में गुम होता कोहरा

और उसमें भी बुलबुल रोता हैं

ऊंचे मकानों की खुली छत पर

कोई बेघर बावला सोता हैं

ख़ाली पेट पर चुस्की लेकर

सीना दूध सा उबलता हैं

सूखे लबों के पास आने पर

हलक़ आंच सा सुलगता हैं

रयाज़त से बनी ताक़त का

सय्यम चूर होता हैं

कड़वी कठोर बोली से

श्रोता दूर होता हैं

घुसते हो हमारे बिस्तर में

तब नर्माहट भी खिसकता हैं

जब कंधा सिर सम्हालता

तब खर्राटा भी सिसकता हैं

नया फ़िर गुनगुनाएगा

गया हुआ खो जाता हैं

जो कल नहीं बच पाएगा

वह आज ही रो जाता हैं


Thursday, February 7, 2019

तोए ت

जो सोच का बटवा हो ख़ाली

मुस्कान बरसे झोले में

जब तोए फसे गोले में।

खनके कितनी पहली पहल

बासी बिखरे कोने में

जब तोए फसे गोले में।

नक़्क़ादों का फ़रमान बोसा

और तारीफ़ मिले ढकोसले में

जब तोए फसे गोले में।

तमीज़ डकारे पैर पसारे

दिखे अकड़ भोले में

जब तोए फसे गोले में। 

नादानी हाए परेशानी जाएं

आसरा का ताला खोले यह

जब तोए फसे गोले में।

भोर सा मुखड़ा चांद का टुकड़ा

आबाद दिल होले ये

जब तोए फसे गोले में।

धक धक कम कम फिर अगला जन्म

पैदाइश पर चेहरा होए कैसा?

ऐसा की, कोई तोए फसे गोले में।


Thursday, January 31, 2019

आवाज़ एवं चादर

सुबह की कंपन

दोपहरी झुलसन

फ़िर शाम की थकन, 

कोई आवाज़ कहती मेरे सर पर

आ रहा हूं मैं बिछाने

काली चादर तेरे मन पर।

उसी चादर के भीतर

पलकों में छिपाएं आंसू

हलक में दबाएं सिसक

आवाज़ फ़िर भी कोसे

दुखियारी राग में बेधड़क।

आवाज़ हैं कि बौखलाए,

तू आवारा, तू नाकारा 

और न जाने क्या क्या, 

फाड़ लू अपने पर्दे

फोड़ लू अपनी आंखें

जोड़ लू हाथ अंधेरे को

कि जान मेरी लेजा ले।

बेगुनाही का मंसूब बेबसी से

जो बेकसूर हुआ फ़ौत

खुशियों की कोक में। 

यकीं नहीं होता अपनी यादों पर

ना दिखे भरोसे का ठिकाना 

आने वाले कल की खोज में। 


Sunday, January 27, 2019

गुलाबी

गुलाबी बादल झुलसे हैं

बढ़ती आग की लाली में,

कोई धनुष तीर तान बैठे

बूढ़े पीपल की डाली पे,

उठे चमकती शमशीर यू

नीले झरने के आंचल से,

हुई कुर्बानियां गाड़ी सुर्ख

गंदी गलियों की नाली में।


किसी झाड़ी के पीछे छिपा जत्था, अनगिनत चीखों के बीच अपने पुरषोत्तम का इंतज़ार कर रहा था। ख़ून के बौछारों की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती, ना मालूम पड़ती है ध्वनि उस धार की जो लोथड़े को चीर फाड़े। जिस कल्पना से किसी तट किनारे कीर्तन हुआ करते थे, वोह आज बेबसी से भरे घूटों को भी न्योता भेजे थीं। अच्छी यादें तोह नरमाहट सी होती हैं, मगर वर्तमान के डरावने सपनों ने अच्छे अच्छो के पिछवाड़े जमा दिए। 


चींटी मक्खी मनाएं दावत

लसलसे ख़ून के रस से,

जो ना चूसे वों घूमे हैं

भद्दे गंध की उमस में।

बिन छटपटाए

कोई सो जाएं

निहायती भी ना रो पाए,

जो रो जाएं

वोह खों जाएं

कट गिरे सिर जो धड़ से।


एक बूढ़ा और उसका नाति खुशकिस्मती से जान बचा कर भाग सके, हालाकि दुआओं पर अभी भी ज़ोर दीया जा रहा था। नाक सिकुड़ी, लुंगी गीली और नयन ताके रस्ता, गुलाबी बादलों की मदद से। अचानक से तलवे फिसलते संतुलन के मारे, जो आगे कोई चट्टान सा साया रस्ता रोके खड़ा था। नन्हा अपने नाना के लुंगी के पीछे छिपा; अपनी आवाज़ को ज़ुबां, और ज़ुबां को दाड़ के पीछे छिपाए हुए था। धीमें से साया आगे बढ़ा।


शूरवीर था क्यूं

लालची जोख़िम का,

लालच थी क्यूं

शोले सी तालू पर,

ना थकान लागे इसको

ना दर्द जागे इसमें,

मोड़ कर पांव

जोड़ कर हाथ

पटक कर अस्त्र

धरती की लकीरों पर,

ऐसी गुलाबी बादलों की करतूत

अपनों से कैसे आवारा बनाती

और कैसा बंजारे साए का करिश्मा

पिछड़े लावारिस जीवन को बचाती।

Tuesday, January 22, 2019

दौलतराम-गंगाराम

दौलतराम की गंगा मैली,

गंगाराम कंगाल बड़ा,

भ्रांति भ्राता मन से खेले,

आफ़त का बढ़ता घड़ा।

खुशियों का चिकना लेप नहीं,

धातु इसका मनहूस कठोर,

फेक फांककर, गेर गारकर,

भी ना बदले इसका भूगोल।

हज़ारों ख्वाहिश, लाखों सवाल,

करोड़ों विकल्प में अटके हैं,

चार दिवारी भ्रमण से हारे,

दुविधा में यू लटके हैं।

दूध का कर्ज़ या ज़हर का फ़र्ज़,

जीवन के तत्व से लागे हैं,

जो प्रभु भी बग्ले झांक पड़े,

चीखें दोनों आलापे हैं।

वजह वजूद के झूले में,

हैं न्याय सबूत के कुएं में,

भयभीत हो या हो भयमुक्त,

मिले उत्तर कर्म के कूल्हे में।


Saturday, January 5, 2019

सूखे दाग़ लहू के

सूखे दाग़ लहू के,

दीवार की बाहों में बसते थे,

आंसू भगोड़े गाल पर भागे,

विष खौफ का डसे थे। 

कटे खिलौने एक तरफ,

कुंद था ब्लेड दूजी ओर,

सनी सी उंगली सुन्न पड़ी,

और मंद दिमाग़ ख़ाली चकोर।

खिलवाड़ खिलौने नहीं,

पर करती अपनी नियति,

गुस्ताख़ी जो गले पड़ी,

फबती ख़ुदा की नज़रें कस्ती।

अरे गलती से ही गलती होती,

बली का बावला कोई नहीं,

सुबकते हिम्मत की गुहार,

माफ़ी आपा से ज़्यादा सही।