दूर एक मकान की छत पर, एक डी. टी. एच. के साथ बंधा हुआ केसरी ध्वज चकबका रहा हैं। वहीं पर कबूतर, जो मुंडेर की आदि है, अब टीन एवं शाखाओं के नीचे बेसब्री से इंतज़ार में है - कब बादल छटे और अपने घोस्ले के दीदार हो।
चलो, कम से कम कबूतरों में संयम तो हैं, वरना इंसान तो बिजली वालों के लिए एक से बढ़कर एक गालियां अर्ज़ कर रहा है। खिड़की के बाहर नज़र पड़ने पर ज़ुबां अपने आप ही थम गई। जैसे जैसे अंदर चुप्पी चढ़ी, वैसे वैसे बाहर बूंदा बांदी बढ़ी।
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