कशिश ने अपनी नज़रें गणित की कॉपी में ही छिपाएं रखी। बच्चो और मैडम जी की या तो कभी नज़रें, या फिर ताने घूम फिरकर कशिश के ऊपर चढ़ ही जाते हैं।
उतने में सर जी - मैडम जी के पति भी बोल पड़े, "चलो भई, सब प्रार्थना करना कशिश के लिए कि इसकी बुद्धि कल इम्तिहान के वक़्त चल पड़ें।"
बच्चो की आवाज़ अक्सर एक सी होती हैं, मगर हसने का तरीक़ा नहीं। हर्षित खिलखिलाकर हस्ता, परिधि जोर जोर से, वहीं पर तनिष्क हथेली से होठ दबाएं खास रहा था। लेकिन कशिश के लिए इसमें हसने जैसा कुछ ना था। अगर होता भी, तो मैडम जी तब भी कशिश को दांट देती।
"कंझाली सी! सवाल एक भी ना होता, पर देखो कैसे दांत फाड़ रही हैं।"
इतना तो सहना अब आम था। डर तो दरअसल मैडम की मार से लगता था। शुरू में थप्पड़ों का प्रकोप था। पर फ़िर एक टाइम आया जब कशिश के पिता ने अपने बेटी के गाल को कुछ लाल सा पाया। कशिश के पिता ना तो गुस्सैल थे, ना हीं नासमझ। पता था कशिश का पढ़ने लिखने में मन नहीं हैं, सो मैडम जी के सामने बस एक गुज़ारिश की।
"चाहें तो फेल कर दीजिए, पर इतनी ज़ोर से ना मारे।"
"फेल तो इसने वैसे भी होना हैं," मैडम जी ने दो टूक बोला। "मैंने स्वाति को बोला भी के इसपर ध्यान रखो, पर आप लोग तो सुनते ही नहीं।"
यह बात सही नहीं थी। माँ बाप सुनते तो थे - चाहें यहां ट्यूशन में मैडम की, वहां स्कूल में बाकी टीचर्स की, यहां तक की घर में आने वाले पड़ोसियों की भी। जब घर में चाय पीते वक़्त बातें होती।
"आजकल स्टैंडर्ड भी तो कितना गिर पड़ा है।" दुग्गल साहब उंगली के बीच टेढ़े प्याले को दबाएं बोल पड़े। "अब आप स्मार्टफोन को ही ले लो। पांच साल पहले पच्चीस हज़ार का लिया था मैंने! पर आजकल तो साले मजदूरों के पास भी ऐसे फ़ोन दिखाई देते हैं।"
पिता ने चुपचाप हामी भरी, और एक चुस्की ली।
दुग्गल साहब बोलते रहें। "वहीं पर स्कूल के बच्चों के पास भी अब स्मार्टफ़ोन हैं। और ऊपर से इंटरनेट इतना सस्ता, पूरे टाइम ऊट पटांग चीज़े देखते रहते हैं।"
कशिश के हाथ तो मुश्किल से फ़ोन लगता था। माँ के पास एक सस्ता सा कलर फ़ोन था, उसमें दो गेम खेल खेलकर मन ऊब गया था। और जो पिता का स्मार्टफ़ोन था, दुग्गल साहब की मेहरबानी से अब वह कहेंगे -
"शर्म कर, लड़की! सुना नहीं, क्या बोल कर गए अभी दुग्गल अंकल?"
कशिश हालाकि अपने धुन की मीरा थीं, वह यकीनन दुग्गल की बातों का मतलब समझती थी। चेतन का लिखा वह ख़त, जो वास्तव में परिधि के लिए लिखा गया था, पर पहले कशिश के हाथ लगा था। उस ही को शायद 'ऊट पटांग' कहते हैं। परिधि की मां के पास स्मार्टफ़ोन था, और परिधि बताती एक ऐप हैं, जिसमें लोग रोमांटिक गानो पर अभिनय या फ़िर डांस करते हुए वीडियो डालते हैं। वह ऐसी ही वीडियो बनाने का मज़ाक करती थी, चेतन के साथ। कशिश को मज़ाक नहीं, पर जलन लगती थी।
फ़िर परिधि ने चेतन के लिए एक ख़त लिखा, जो इस बार टीचर के हाथ लग गया।
"शर्म कर, लड़की! पापा इतनी मेहनत करे पढ़ाने के लिए, और देखो कैसे नैन मटक्का करे बिटिया रानी।"
परिधि की मां ने टीचर के सामने ही अपने बेटी के गाल पर दो जड़ दिए, वहीं पर चेतन को प्रिंसिपल साहब ने टीसी पकड़ा दी। परिधि कुछ दिनों तक मायूस थीं, लेकिन बाद में जैसे सब भूल चुकीं थीं। कशिश तो परिधि से भी ज़्यादा जल्दी चीज़े भूल जाती। इसी वजह से उसे मार ख़ानी पड़ती थी।
परीक्षा शुरू होने में काफ़ी समय था। उससे पहले ऐनुअल फंक्शन भी होना था। यहां पर माता पिता चाहें तो आ सकते हैं, वरना बच्चों को तो वैसे भी आना ही था।
जो हर साल होता है, वह इस बार भी हुआ। लड़कियों का डांस शो, लड़कों का एक्रोबेटिक्स, और फ़िर खड़े होकर एक देशभक्ति गीत को गाना। आख़िर में- जिस चीज़ पर सभी की नज़रें थीं- वह था ख़ाने के आइटमो का स्टॉल। जो एक बार खुला, तब कहां किसी में तमीज़।
फंक्शन ख़त्म नहीं हुआ था, पर कशिश ने स्कूल के बाहर घूमने का सोचा। पैदल चलकर जाओ तो घर महज़ दस मिनट की दूरी पर है। बाक़ी बच्चे तो पागल थे, मगर कशिश को पेटीज फ़ीके और ठन्डे लगे, सो अब वहां रहने का कोई फ़ायदा नहीं था। दिन के दो बज रहे थे और सूरज आसमां में कहीं खोया हुआ था। कशिश के पांव धीमे पवन के संग चलते थे।
चलते चलते सामने चेतन दिख गया, पेड़ के सहारे खड़ा। उसे स्कूल से निकाले हुए डेढ़ हफ़्ते हो चुके थे। लंबे, बिखरे, पसीने से लथपथ बाल रखने के लिए उसे काफ़ी बार डांट खानी पड़ती थी। मगर अब मुर्गे जैसे बाल और बदन पर एक जैकेट। पहली बार में पहचान में नहीं आया था।
"और बे, कैसी हैं तू?"
कशिश ने अपना सर हिलाया और चेतन उसके करीब आ गया। उसके पीछे कोई दो लड़के और थे, जो उसके स्कूल के नहीं थे। कशिश ने पूछा कि कौन है यह।
"भई है मेरे इलाक़े के। यह अमन और यह प्रतीक।" पहले ने हाथ हिलाया, दूसरे ने मुंडी। दोनों चेतन से उम्र में बड़े लगते थे। "और, मज़ा आया नाच कर?"
घर में तो कशिश बड़ा नाचती हैं, अकेले टीवी के सामने। कोई रोकटोक या खिल्ली उड़ाने वाला नहीं होता ना। स्कूल में, जहां पर डांस टीचर के साथ अन्य लड़कियां और होती हैं, कशिश को अजीब सा लगता था। परिधि के अंदर बड़ी हिम्मत थीं, सो औरो के सामने बिल्कुल अच्छे तरह से नाचकर दिखाती थी। कशिश एक तो शर्मीली, ऊपर से स्टेप्स भूलने की बीमारी।
चेतन अपने आप ही हसने लगा। "मुझे पता है परिधि अभी भी नाच रही होगी। पागल सी।" परिधि और चेतन अब नहीं मिलते थे, फ़िर भी कशिश को मालूम था के परिधि ने चेतन का ख़त अभी भी सम्हाल कर रखा था।
चेतन ने हस्ना बंद किया, फ़िर पूछा। "और अब, वापिस घर के लिए?"
कशिश का वास्तव में मन नहीं था घर वापिस जाने का, लेकिन फ़िर जाती भी तो कहां। वह जाने के लिए क़दम बड़ा ही रहीं थीं। तभी चेतन बोल पड़ा।
"हम लोग ऐसे ही टहलने जा रहे। वह बस अड्डे के पीछे वाले इलाक़े तक। तू भी आजा, मस्त रहेगा।" कशिश ने हामी नहीं भरी, सो लड़के उसकी चुप्पी के बूते उसे ले घूमाने ले गए।
बस अड्डा तो महज़ नाम का ही था। एक जगा जहां पर एक दिन हर बस वाले ने रुकने का निर्णय लिया था। रुकते तो वह कभी पेशाब करने या तो फ़िर टांग सीधी करने। देखते देखते लोग वहीं से बस में चड़ने लग गए। मगर उन्हें बस में नहीं, उसके पीछे फ़ैले हुए खेतों से गुजरना था। पता नहीं कहां पर जाकर यह खेत ख़त्म होते हैं, और कहां से दूर खड़े घने जंगल शुरू होते हैं।
कशिश ने सोचा, आज जाकर पता कर ही लेते हैं।
पर वह ज़रा अनजान थी। खेतों के बीच में आते ही, चेतन ने निकाली एक बोतल, अमन ने एक थैली, और प्रतीक ने प्याले।
"चल, तू भी लेले," चेतन हवा को चूमते हुए बोला।
कभी कभार देर तक सोने के बावजूद सिर में दर्द रहता हैं। चाहें कितनी दही आप खा ले, शराब इतनी जल्दी सांसों को नहीं छोड़ती। कितनी चीनी चबा ले, तरकारी का तीखापन ज़ुबान को तब भी काटता हैं। और वापिस शहरी इलाकों में आप चले आओ, जंगली वादियों ने तो कल्पना के संग आपके ज़हन में बहाने बना कर एंट्री मार ही लेनी हैं। कोई चीज़ जो आपको मिलती है, और आपके साथ हमेशा रहती हैं, आपका स्वागत करने के लिए।
जिस वक़्त कशिश वापिस अाई, बहुत देर हो चुकी थी। खुले आसमान की राते जहां नीली होती हैं, वहीं पर बादलों के बढ़ जाने से पॉलिश उतारे रूई सी लाली छाई हुई थी। चेतन और तो पहले ही चंपत हो चुके थे, गनीमत रही कि कशिश को रास्ता याद हो चुका था।
अपनी गली में घुसते ही कशिश ने मोहल्ला अपने चौखट पर जमा पाई।
"अरे आ गई देखो। स्वाति!"
मां भागते हुए कशिश के पास अाई, गले से लगाया और गाल पर पुचकिया देने लगी। मोहल्ले का एकांत धीमे से बुदबुदाने में तब्दील हो रहा था। कुछ ने राम नाम गाए, कुछ ने ठहाके लगाएं, और दो चार अपनी मुंडी घुमाएं। मां के मुख पर मुस्कान थीं।
जो अचानक से टूट गई। मां ने एक लम्बी सांस ली। बूह तो यकीनन कशिश के मुंह से आ रहीं थीं।
भीड़ छटी। मां ने कशिश को कुल्ला कराया। तब तक घर में दुविधा की दुर्गंध फैलती गई। आख़िर में रहें तो सिर्फ़ दुग्गल साहब, चौथे टेढ़े कप को पकड़े। चाचा जी चेतन के घर गए, उसे "उठाने" के लिए।
चूंकि इसकी मां गांव में रहती थीं, चेतन अपने मामी के साथ यहां रहता था। मामी को ना पता था, ना परवा थीं, अपने भांजे को लेकर। "मामा ज़िंदा होते तो टाईट करके रखते इसे। मैं अकेले क्या क्या करू? इसकी मां ने मेरे मत्थे मड़ दिया इसे। जहां आपको मिले पकड़ लेना।"
ना चेतन मिला, और ना हीं कशिश के परिवावालों ने ज़्यादा कोशिश की। उन्होंने इतने में ख़ैर मनाई कि लड़का कुछ "ऊट पटांग" नहीं करके गया लड़की के साथ। कशिश जानती थी वह पढ़ाई में कमज़ोर है। पर असल सच्चाई तो बातों में थी, जो कोई मोहल्ला फैलाता है। कशिश टॉपर भी बन जाती, तब भी कौनसा पिता ने वापिस स्कूल भेजना था।
और फ़िर दुग्गल साहब तो थे ही, पिता के ट्रस्टेड एडवाइजर। "इसे सिलाई बुनाई का काम सिखवा दो। वरना, क्या खाना पकाना आता हैं क्या इसे?"
परिधि के घूमने फिरने पर भी लगाम कस गई थी। बालकनी से कभी दिख जाएं तो बात अलग है, वरना मिलने की गुंजाइश कशिश के बाहर निकालने से भी कम थी। नहीं थी सो ना ही सही। कुछ दिनों बाद अगर मौक़ा भी मिलता, तब भी कशिश परिधि की ओर ना देखती।
फ़िर एक दिन उसे याद आया। जिस दिन परिधि का जन्मदिन था। कशिश बालकनी से झांकती रहीं, मगर मानों जैसे कि चक्का जाम का ऐलान हों गया हो। पिछले रात जो बारिश हुईं, अब सूर्य की किरण दूधी सवेरे पर हल्दी का काम कर रही थी। लेकिन जो कशिश के नाम पर अपच पड़ी है, उसका क्या...
हिम्मत होती नहीं है, बल्कि करनी पड़ती हैं। मां कमरे में बैठें दाल साफ़ कर रही थी। कशिश का ख़ून उसके पैरों के अंदर जम रहा था। मां ने अपनी नज़र घुमाई, कशिश के गालों पर टीसे लग रहीं थीं।
"क्या हैं?"
कशिश के खुद की नज़रें मां के हाथों पर टिकी हुई थी, और कैसे मा थाली में दाल को झूला रही थी। थाली को देखते देखते उसने बताया कि वह परिधि के घर जाना चाहती है।
थाली हाथ में थमी, और मां की आंखें और गहरी लगने लगी। इतने समय बाद, कशिश को अंदाज़ा हो गया था कि अब वह क्या कहेंगी।
"तेरे को बोलू मैं शर्म करने को, तुझे ना कोई परवा। क्यूं रे लड़की, है ना?"
कशिश ने कोशिश की, लेकिन मन पर काबू नहीं था।
"बेवकूफ़ बोलना हैं तो बोल ले। पर मैं बेशर्म नहीं हूं।" कशिश के फटाक से कहा। मां एक झटके से खड़े हो गई, और कशिश ने एक क़दम पीछे लिया। "क्या बोली?"
कशिश अपने मन का सारा भार उड़ेल देती, सिर्फ़ मुआ भय उसकी ज़ुबान पर चौकड़ी ना मारता। बेटी पलके झपका रहीं, आंसुओं को दूर भगाने को। मां भी अपना सिर झुकाए, फुफकार भरी सांसों के बूते ख़ुद पर संयम पने की कोशिश कर रही थी।
"जा," मां आख़िर कार बोली। "लेकिन पिताजी के आने से पहले ना अाई, तो देख तेरी कोई ख़ैर नहीं।"
कशिश ने अपना सिर हिलाया। उस वक़्त पता चला कि कैसे किसी बोझ के टल जाने पर चेहरा अपने आप की मुस्कुरा देता हैं। कशिश वापिस अपने कमरे में जा रही थी, थोड़े से ढ़ंग के सूट पहनने के लिए।
"अच्छा सुन," मां ने उसे आखरी बार रोकते हुए कहा। "मैंने तेरी ट्यूशन वाली मैडम से भी बात की है। तेरे पापा घर साढ़े छ बजे तक आते है। पढ़ने का जी हो, तो एक घंटे के लिए उसके पास चले जाना।"
कशिश ने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन मन ही मन उसकी। ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। सच में, पांच घंटे के स्कूल से तो बेहतर था एक घंटे की ट्यूशन। डांट, मार और मज़ाक, एक घंटे के लिए झेल लिया जाएगा।
कशिश ने एक झटके में अलमारी खोली और तेय्यार होने लगी। मां ने हाथ में सौ रुपए थमाए, कोई गिफ्ट खरीदने के लिए। कशिश को मालूम था, असल गिफ्ट तो ख़ुश खबरी होगी, जो सबसे पहले जाकर वह परिधि को बताएगी।
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