Wednesday, November 28, 2018

खंबा | Khamba

खंबे का खण्डित मुख, जिस पर कबूतर दाना चुग्ने आते थे।ठंडी सुबह चोच में दाना डाले, एक दूजे से जब गुटर गूं करते, तब उनकी चोंच‌ से भाप निकलता था।
जितनी ज्यादा ठंड बढ़ती, उतनी ही उनकी गर्दन सिकुड़ती थी।
दाने मिलना भी किस्मत की बात है भैजी, वरना इंसान कभी कभार उनके वास्ते ज़रा सा भी नहीं छोड़ते।
चंद दानो से सहारा लेकर फिर वह किसी खिड़की के पिंजरे के भीतर अपना आसन जमाते।
वह स्थान, जो या तो बनता है तिनकों से, या फिर सब्ज़ी की टूटी डंठल से। और अगर कभी कुछ ना मिले, तोह बुझे हुए दीयो की पीली ज्योत को अपने चोंच में दबाकर चुरा लेते हैं।
आखिर में उनके भी तोह चूज़े है। और कोई आसान काम नहीं है उन्हें पालना। और वोह भी तब जब कौवे नरम बोटी की हवस पर काबू नहीं पा सकते।
सो आसन जमा कर एवं नज़रे गड़ाकर सब को देखने का उनका नजरिया कुछ अलग बन गया हैं।
पर गनीमत है इस नज़रिए का भी, क्योंकि संसार तो पूरा इन्हीं में समाय है। जो चूजे़ रहे या ना रहे, खंबे पर चुगने हर दिन तोह जाना ही है।

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