Thursday, July 4, 2019

Happy Hymns


There is indeed something magnanimous about the mere existence of rain. Especially in here, the rains have arrived some weeks later than we originally would have preferred them. That means having to spend countless days in a climate which is sometimes either scorching, and other times sweating.
Having said that, I suppose the sanctity of monsoons would have been completely lost on many of us had it arrived the exact time we wanted it to. Having said that, we may also expect a certain case in which we would feel bloated with the abundant amount of rains to the point where seeing an inch of a golden speck on the sky would be the day to sing happy-hymns.
I guess it only enforces the idea of how much we ought to miss something only when it stays faraway from our reach. It is like being in a relationship for half a decade, things going as normally as much a chaotic fella fears it. When one of you asks the other about how much you love each other, you both casually brush off the question for you both take it for granted. Unless a time comes when you both have to live with a certain distance, do you realise the true worth each of you hold for the other person.
If that is going too far, then how about the childhood. I used to have this cartridge of a F1-Racing game. For as long as I had- and had it working- I never gave any care or attention towards it, being too busy playing Mario, Looney Tunes and all that. Until a day came when somehow it vanished itself off of my cartridge box. That day was the first time I got an existential crisis about how and why things go the way they go. Sure enough, however my mother ended up finding it, hidden in the chasm of the king-sized bed, for some reason.  
So, I may enjoy this season for as long as I can tolerate, and then go back to singing songs of praise for the sweaty summers, in the hopes it’ll return back to me like a misjudged lover. I guess it doesn’t hurt (even if it does) to see the things you cherish to be taken away from you, concisely so you may just realise, how much do you cherish that particular person, thing, or the season.
Namaste.  

Monday, July 1, 2019

नए भारत का सपना

    भारत जैसा विशाल देश महज़ किसी एक इंसान के सपनों के बूते ना चल सकता है, और ना ही ऐसे ज़माने की ओर हमें बढ़ना है जहां सिर्फ एक इंसान या संगठन की मंशा तक ही देश की तकदीर को समेटे रखा जाए।
    बल्कि, वास्तव में नए भारत का सपना उन ही बातों को बरक़रार रखना होना चाहिए जिन बातों पर हमारे धरोहर की नींव टिकी हुई हैं। हमारी अनोखी विविधता, जहां हमारी सोच मानों कोई खुला आसमां हो, जो हमारे सपनों के तारामंडल से उजागर किया जाता हो। मगर इस अनोखी विविधता के बावजूद, एक देशवासी होने के नाते कुछ मूलभूत ज़रूरतें हैं जो हर देशवासी चाहेगा उसे अपने देश में नसीब हो।
    आज हमें अंग्रेज़ो से आज़ादी मिले ७० साल से ऊपर हो चुके हैं। उसे प्राप्त करने का मक़सद था अपने देश की उन्नति एवं अवगती की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर उठाना, बिना किसी ग़ैर की हुकूमत के। लेकिन इन गर्मियों में जब पता चला कि देश में पीने के पानी की किल्लत बढ़ती जा रही हैं, कहीं ना कहीं ऐसा एहसास होता है के इस देश के नागरिक होने का धर्म हम पूरी ईमानदारी से नहीं निभा पा रहे हैं। हर वर्ष लाखों बेबस सूखे हलक से इस झुलसाने वाली गर्मी में अपना दम तोड़ देते हैं, और बड़ी निराशाजनक भाव से मानना चाहिए कि इन बेबसों की तादाद बढ़ने की संभावना किसी भी रूप से कम नहीं हो रही हैं।
    वहीं पर कुछ जगाएं ऐसी भी हैं, जहां वर्षा के कारण बस्तियां मानों तट, और सड़के जैसे समुद्र में बदल रही हैं। ऐसी जगहों पर पानी का नाम सुनकर नफ़रत बढ़ जाती हैं। हालाकि एक बड़ा अजीब सा संजोग है कि ऐसी त्रासदी में भी लाखों लोग डूबकर अपनी जान गवां बैठते हैं। मैं समझ सकता हूं, अगर आपके मन में यह सवाल उठता है, के क्यूं ना एक जगह की बाढ़ के अतिरिक्त पानी को अकाल पीड़ित इलाकों में बाटा जाए, तो मैं हर रूप से आपसे सहमत हूं। अफसोस बस इस बात का है कि यह योजना कोई ताज़ा नहीं है, और प्राचीन एवं प्रसिद्ध होने के बावजूद ऐसा कोई भी बंदोबस्त नहीं किया गया है। एक तरफ़ से देखें तो यह भी हमें विविधता दर्शाता हैं, फर्क इतना है कि ऐसी विविधता पर हमें किसी बात का गौरव नहीं मिलता हैं। 
    अपने इतिहास के प्रति सम्मान एवं महापुरुषों की प्रशंसा में गीत तो हम अक्सर गाते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन क्यूं हम किसी मत्स्यबुद्धि की तरह इन गीतों का फलसफा इतनी जल्दी भूल जाते हैं। या कहीं ऐसा भी हो की इन महापुरुषों की महान यादों की एहमियत की सीमा अब हमारे ज़हन में सिर्फ चंद गीतों पर ही सिमट चुकी हैं। बहुत ख़ूब एक गीत में लिखा है लुधियानवी साहब ने - "अपमान रचयिता का होगा, रचना को अगर ठुकराओगे।" 
    मगर मैं अपने शब्दों में कहूं तो - 
    रचयिता का कण उस रचना में,
    जिसे समझ बैठें मुरीद हो तुम,
    डसना घमंड ने हम ही को हैं,
    क्या जानो तुम, रचयिता का ग़म।
बेहराल, समस्या देखी जाएं तो सिर्फ़ पर्यावरण तक ही सीमित नहीं हैं। जब विविधता की बात छेड़ ही दी है, तो उसके विभिन्न रूपों के बारे में थोड़ी चर्चा करना अपना फ़र्ज़ समझता हूं। हम सब बख़ूबी जानते हैं कि भारत भिन्न भिन्न प्रकार की संस्कृति, भाषाएं, लिबास, भोजन, मान्यताएं, रिवाज़, ग्रंथ एवं पंथों से भरपूर हैं। विविधता के विषय का राजनैतिक उपयोग जहां बड़े से बड़े देशों की सत्ता आज कर रहीं है, वहीं पर भारत बेहद सौभाग्यशाली हैं उसे यह विविधता (या डायवर्सिटी) इतिहास, भूगोल एवं पुराण के सहारे विरासत में मिली हैं। हम एक ऐसी सभ्यता के सार्थी है जो उन्नति के पथ की दिशा बख़ूबी समझती थीं। ऐसे ही नहीं हमने गणित, राजनैतिक, विज्ञान एवं स्वास्थ्य संबंधित आविष्कार कर के दिखाएं थे। इतने उत्तीर्ण प्रतिभाशालियों का देश है भारत।
    वैसे तो हमारा देश आज भी आगे बढ़ रहा हैं, लेकिन अभी हम उस उन्नति के मार्ग से थोड़ा भटके हुए हैं। इसकी बड़ी वजह मैं समझता हूं हमारी विचारों और जिज्ञासा के प्रति विविधता का कम होना। अपने विचारों को प्रकट करने की निसंकोच आज़ादी पाने की कश्मकश में हमारा देश पिछले कुछ दशकों से काफ़ी बार जूझता रहा हैं। सेंसरशिप, जिसके खिलाफ़ बड़े बड़े लोग और संस्थाएं ज़ोर शोर से आवाज़ उठाती है, वह कहीं न कहीं आज भी एक काले साए की तरह हमारे ज़हन पर मंडरा रहा हैं। यह साए आपको कई जगह पर मंडराता हुआ मिलेगा - फिल्मों पर, किताबों पर, संगीत पर, कलाकारों पर, पत्रकारों पर, आलोचकों पर और बदकिस्मती से कभी कभार इसका अंजाम आम जनता को भी सहना पड़ता हैं। हालाकि, इन सब चीजों से यह ग़लत फहमी मत पालिएगा के मैं यह जताना चाहता हूं कि भारत देश में विचारों की आज़ादी नहीं हैं। बल्कि, कभी कभार हमने देखा है कैसे इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग फिल्में, पत्रकार, कलाकार और यहां तक आम जनता आदि भी करते मिलती हैं। जितना नुकसान वाक-स्वातंत्र्य के कमी से होता हैं, उतना ही बड़ा नुकसान इस स्वतंत्रता के ग़लत इस्तेमाल से भी होता हैं। जितना इस देश का हिस्सा कोई राजनेता या कोई बड़ी हस्ती है, उतना ही देश यह हम आम नागरिकों का भी है, और उतनी ही बड़ी ज़िम्मेदारी हम सब की है कि विचारों की आज़ादी का सही समय में सदुपयोग होता हुआ हम देखें। 
    इन ही विचारों की आज़ादी तहत मै एक टिप्पणी उन विचारों के ऊपर भी करना चाहूंगा, जो शायद इस भारत के अद्भुत कण को हानि पहुंचाने के योग्य हैं। यह टिप्पणी उस राजनीति पर है, जो अपने मुनाफे की भूख़ में इतना लीन हो चला हैं कि भारत तो छोड़ो, यह मानवता के प्रति भी कोई सम्मान नहीं रखते हैं। किस तरह से धर्म, जाति या संख्या के विषयों के तहत लोगों को भड़काने की कशिश की जाती है, अपने राजगद्दी के फ़ायदे के लिए। जब एक बार की केंद्र सरकार नागरिकों को निराश करती हैं, तब विपक्षियों के मन में इन बातों को सोच कर लड्डू फूटते हैं कि सरकार ने ख़ुद कितना फ़ायदा उठाया हैं। आम इंसानों की गुहार लगभग अनसुनी सी ही रह जाती हैं। सोचने वाली बात यह भी बनती हैं कि आख़िर कार किन वादों से तसल्ली पाकर जनता किसी को अंधाधुन मतदान देती हैं, और जब वादे पूरे नहीं होते, तब फ़िर वहीं घिसी पिटी गालियां सुनाने को तेयार रहती हैं।
    कहीं ना कहीं चंद शब्द मैं लिखूंगा इस इंसानी समाज के बारे में भी, जो भारत देश के प्रगति के लिए सबसे आवश्यक प्रणाली हैं। एक विशाल समाज का मूल्य उसमें रहने वालों के बीच आपसी तालमेल एवं संबंध से पता चलता है। यह कहने वाली बात तो नहीं, लेकिन भारत एक बेहद विशाल देश है, जिसकी जनसंख्या दुनिया में दूसरे स्थान पर आती हैं। ऐसे समाज में मुमकिन नहीं है सबका एक दूजे से व्यक्तिगत रूप से जान पहचान रख पाना। लेकिन ऐसा समाज का सही रूप से चलना सिर्फ़ एक ही चीज़ पर निर्भर है - वह है उस समाज में पलती इंसानियत से। सोचने की बात है कि इंसानियत का सही तौर से क्या मतलब है? क्या हर इंसान को इंसानियत जन्म लेते ही किसी वरदान की तरह प्राप्त होती हैं? हमें ऐसा सुनने को क्यूं मिलता है कि "इस दुनिया में अब इंसानियत नाम की चीज़ बची ही नहीं है"। एक नज़रिए से, इंसानियत ही वो है जो इंसान को पशु पक्षी से अलग बनाती हैं- वोह हो सकती है हमारी विकसित सोच, हमारा श्रेष्ठता का जुनून, और अपनी मनोस्थिति को जताने वाले हाव भाव। लेकिन दूसरी ओर से देखें, तो शायद इंसानियत या मानवता हमारी भावात्मक आकांक्षा की सबसे निराली निशानी हैं।
    जब खबरों में हम घिनौने अपराधों के बारे में सुनते हैं, कहीं ना कहीं इंसानियत की मान्यता पर, इस निराली निशानी पर सवाल उठने वाजिब हैं। शारीरिक, मानसिक या फ़िर यौन शोषण आज भी एक दुखाने वाली समस्या है। समूहों का उपद्रव मचाना, घोटाले होना, भ्रष्टाचार पर तेज़ लगाम ना कसना, काफ़ी ऐसी समस्याएं सामाजिक तंत्रों पर ज़ंग की तरह चिपकी हुई हैं। जैसे आम नागरिक अपने समाज का इकाई होता हैं, वैसे ही प्रशासन उसके सूत्र के बराबर हैं। बिन इकाई कोई अंक नहीं हो सकते, और बिन सूत्र के अंकों की बढ़ोतरी नामुमकिन है। दोनों तरफ़ से इन बातों को समझा जाएं तो इस समाज के उन्नति के लिए बेहतर हैं।
    आख़िर में मैं बस इतना कहना चाहूंगा कि नए भारत को लेकर मेरे सपने बड़े अनोखे तो नहीं हैं, क्यूंकि अब अनोखे सपनों, वादों और योजनाओं को सुन सुन कर उम्र निकलती जा रहीं हैं। और उम्र के साथ संयम भी फिसलता जा रहा हैं। सब सोच विचार कर मैंने यही पाया के सपनों से भरी दुनियां सुहानी तो होती है, लेकिन असल सुकून हकीकत के कारनामों से ही मिलता हैं। और अब कुछ आवश्यक कारनामों की इस देश को सख़्त ज़रूरत हैं।
    धन्यवाद्।
    
    
    
    

रचयिता की रचना