Monday, December 17, 2018

चांद पर फुलवारी

चांद पर फुलवारी,

जहां धब्बों से काले साए ठुमकते।

कहीं फिसल कर ज़मीन पर ना गिर पड़े,

त्राहिमाम का राग पतझड़ गाने लगेंगी।

जहां चांद पर पांव थिरकते,

अब ज़मीन पर घिसड़ कर रेंगते थे।

ना दाना, ना पानी, ना मिट्टी और ना हवा,

ज़रूरत उस चांदी के फुलवारी की थीं।।

जमींदार देखे तो दहाड़े,

किसान देखे तो फुसफुसाए।

ज़मीन तो जानती थी बस पैदावार,

और मग्न मुग्ध होकर चरती थी गाय।।

क्या जुर्रत थी काले साए की,

जो ज़मीन के बीज को समझ कर दिखाते।

और क्या अक्ल थी ज़मीन के बीजों की,

जो काले साए की मदद कर पाते।।

चांद छिप जाएगा,

फुलवारी डूब जाएगी,

अध्ययन में मग्न नयन,

नीचे गिर जाएंगे।

ना ताकने का फ़ायदा,

ना झाकने का डर,

साए ही तोह है आख़िर कार,

आती धूप इन्हें ले जाएगी।।

Friday, December 14, 2018

दुविधा की विद्या

दुविधा की विद्या की तालीम पाकर,

चला दिखाने जलवे उस विद्यालय में,

सुविधा जहां पर गुमसुम बैठे थीं।

अटेंडेंस लो तोह कुछ बोले ही ना,

काम भी कुछ करके नहीं दिखाती, 

अकड़ के पीछे छिपता उसका डर,

सो अन्दर ही अन्दर अपने आंसू चाटती थी।

ब्रेक आया खेलने का,

सुविधा का तो डब्बा भी नहीं खुला था।

दुविधा के दर्द का था जादू,

के खाने में ज़्यादा डिमांड नहीं होती थी।।

ठंडी आह भरी और बैठ गया सुविधा के पास,

दुर्गंध दर्द की पास से ही महसूस होती थी।

स्नेह से लगाया जो गले,

मायूसी की अपच आख़िर में उगल दिया था।।

ना दुविधा का सुख उसके पास,

ना ही अशुभ सुविधाएं मेरे झोले में।

भूख हम दोनों को तड़पाती भरपूर,

सो एक दूसरे का निवाला खाकर शांत किया था।।


Wednesday, December 12, 2018

पैदा क्यूं हुआ था मैं?

पैदा क्यूं हुआ था मैं?
मरने का ख़ौफ जो चुभ रहा हैं।
छिटक क्यूं जाता है हाथ से ग्लास,
हलक़ जो घबराकर सूख रहा हैं।
कमीज़ उतारलू क्या मैं?
कहीं बन ना जाऊँ सवेरे से पहले,
कंबल के भीतर कुछ गला हुआ।
छीड़ के बीच में कपकपाना,
वरना भीड़ के साथ तर हो जाना,
किधर था इनमें कोई अपना?
दफ़्ना दो, या जला दो,
वरना बाज तो भूखे है हर वक़्त।
कोई रोएगा, कोर्ड शोक मनाएगा,
बस कंधा जब दोगे तुम,
उफ़-आहं ना करते रहना कर वक़्त।

-Shashank Jakhmola

Tuesday, December 11, 2018

तस्ले

तस्ले पर रखकर घरौंदे के कण कण,

उलट दिया एक खाई के अंदर।

तीर्थ की आस से चल दिया ऊपर,

स्वर्ग पर मगर किसी और का मकान था।

Friday, December 7, 2018

लक्ष्मी के चरण

तुलसी की शरण में लक्ष्मी के चरण,
वहीं शालिग्राम आज तन्हा बैठा था।
दीपावली को बीते सप्ताह हो चुकीं थीं,
सो रौनक का दीप अब धूप में बदल चुका था।
लक्ष्मी के चरण कोमल कागज़ की तरह,
पत्तों और टहनियो के बीच में झूले थे,
हुआ स्नान संग गंगाजल के,
देखा तोह आज पत्थर मुरझाया हुआ था।
शालिग्राम देखे शिवलिंग की ओर,
शिवलिंग देखे सूर्य की ओर,
सूर्य देखे ब्रम्हांड की ओर,
और ब्रम्हा देखे उन सब की ओर।
लक्ष्मी कृपा से लाल हो उठी वह तुलसी, 
जिस पर किसी ने गुलाब ना चड़ाया,
मंथन परिश्रम कि क्या आवश्यकता,
अमृत अब तुलसी के पत्तों में बस आया।
गए नरेश पश्चाताप करके,
और हुआ था कुछ का सर्वनाश,
समय के चक्र का संहार करके,
इतिहास के सहारे अब पुराण हस्ता था।
-Shashank Jakhmola 

Friday, November 30, 2018

कम डालू क्या मैं?

सब्ज़ी में गोभी है ज़्यादा,
आलू कम डालू क्या मैं?

कहता है अन्नदाता,
मजबूरियां है ज़्यादा,
ख्वाहिश कम डालू क्या मैं?

खाने में है तीखा ज़्यादा,
जलती अगर ज़ुबान है,
मिर्ची कम डालू क्या मैं?

जो रूठे इतना रहते हो,
फिर भी तुम कुछ ना कहते हो,
मस्ती कम डालू क्या मैं?

जीने की क्यों कोई आस नहीं,
लगती जो तुमको प्यास नहीं,
शोहरत कम डालू क्या मैं?

सब्ज़ी जब कम पड़ जाएगी,
और भूख तुम्हे सताएगी,
नीयत कम डालू क्या मैं?
-Shashank Jakhmola

सुस्त शेरनी

खर्राटे जैसे गर्जन,
उबासी जैसे चुस्त पवन,
अंगड़ाइयां करदे भूस्खलन
चिंगारियां बरसाए तेज नयन। 
फिर क्यूं सुस्त सी पसर गई यह शेरनी?
खूबी से भरपूर और हुनर से लैस,
अब अपने काले कैफ़ियत में घिरी हुई थी।
ऐसा कोनसा माजरा इसके मन में पकता,
जो आज बिजली के पंजे ढीले पड़े थे,
और सुस्त सी पसर गई थी यह शेरनी।
क्या उसके बच्चे बहुत चाटते थे,
या उसका शेर उसे बहुत डांटता था,
क्या बड़े फक्र से अपने शान को चुनी थी,
या फिर शान को नीलाम करके पेट काटती थीं,
जो सुस्त सी पसर गई थी यह शेरनी?
उम्र बहती जैसे बहता लहू,
टूटती आवाज़ से कैसे कहूं,
धक - धक दिल नहीं, अब सासें करने लगी हैं,
और सुनने की गुंजाइश भी तो ढलने लगी हैं।
कमाल है के दुनियां तब भी पूछे हैं,
कि आखिर कार क्यूं पसर गई हैं,
यह सुस्त सी शेरनी।
-Shashank Jakhmola 


काले पत्ते

सामने थीं कांच की दीवार,
जिसके उस पार थे काले पत्ते।
ना वह खिलते, और नाही मुरझाते,
एक जगह पर स्थिर, 
जैसे किसी के छूने का इंतजार कर रहे हो।
चाहू, 
तोह इस दीवार को पल भर में तोड़ सकता हूं,
मगर क्यूं?
छू कर शायद नई ज़िन्दगी भर सकू,
पर अगर ऐसा ना हुआ,
तोह मेरे हाथ और जज्बात, 
जलती टहनी की तरह काले पड़ जाएंगे। 

Wednesday, November 28, 2018

भूखा बटुक

भूखा बटुक, जो लब लबाकर दौड़े,
और फिर लताड़ा हुआ हो भाग खड़ा।
कभी दौड़े टंग टनाते दूध के डिब्बे के पीछे,
तोह कभी पाता है खुशबु नमकपारे के थैली के नीचे।
और फिर यह जीभ भी एक जंतु है,
परन्तु देखे तोह सिर्फ अपने नाक के सहारे।
सो भूखा बटुक भागे,
नाक फुलाकर,
जीभ फैलाकर,
स्वाद का मीठा गीत गाए। 
कुछ पत्थर थे, कुछ गालियां थी, 
और दुनिया भर की धूप।
बस समय समय की बात है बंधु,
क्योंकि कभी छाव भी थी, कभी रेत भी,
और कभी ताज़े दूध के दो घूट।




अवसर। Avsar

अवसर तोह थे, मगर जज़्बा ना था।
और अगर जज़्बा होता भी, तोह यकीं कौन करता? 
इस कशमकश के चक्कर में पूरी दुनियां घूमे थी,
और पूरे दुनियां के साथ घूमें हम सब।‌

मगर एक समय आएगा जब दुनिया घूमना बंद कर देगी।
ना रहेगी हवा, ना पानी, और ना ही रहेगी ज़िन्दगी कि सुध।

रहेगा तो बस मलाल।
इस बात का, के दुनियां के चक्कर में अवसर को नकार दिया।
पर जब दुनियां की फ़िक्र नहीं रही,
तभी जज़्बा भी हमें छोड़कर चले गयी। 


खंबा | Khamba

खंबे का खण्डित मुख, जिस पर कबूतर दाना चुग्ने आते थे।ठंडी सुबह चोच में दाना डाले, एक दूजे से जब गुटर गूं करते, तब उनकी चोंच‌ से भाप निकलता था।
जितनी ज्यादा ठंड बढ़ती, उतनी ही उनकी गर्दन सिकुड़ती थी।
दाने मिलना भी किस्मत की बात है भैजी, वरना इंसान कभी कभार उनके वास्ते ज़रा सा भी नहीं छोड़ते।
चंद दानो से सहारा लेकर फिर वह किसी खिड़की के पिंजरे के भीतर अपना आसन जमाते।
वह स्थान, जो या तो बनता है तिनकों से, या फिर सब्ज़ी की टूटी डंठल से। और अगर कभी कुछ ना मिले, तोह बुझे हुए दीयो की पीली ज्योत को अपने चोंच में दबाकर चुरा लेते हैं।
आखिर में उनके भी तोह चूज़े है। और कोई आसान काम नहीं है उन्हें पालना। और वोह भी तब जब कौवे नरम बोटी की हवस पर काबू नहीं पा सकते।
सो आसन जमा कर एवं नज़रे गड़ाकर सब को देखने का उनका नजरिया कुछ अलग बन गया हैं।
पर गनीमत है इस नज़रिए का भी, क्योंकि संसार तो पूरा इन्हीं में समाय है। जो चूजे़ रहे या ना रहे, खंबे पर चुगने हर दिन तोह जाना ही है।

Tuesday, November 27, 2018

बूंदें। Boonde

वह हल्की सी बारिश, और धीमी पवन।
जहां झोका बने कृष्ण, और बूंद बने अर्जुन।
वह कभी पत्तों के नीचे विश्राम करते हैं,
वरना महक लगी, तो मिट्टी से ही लिपट जाते हैं।
चाहे, तोह मेरे केश में छिप सकते,
सर्दी का तोह मालूम नहीं,
पर जब तक गर्माहट है, तब तक तो राहत हैं।
बादल का गुड़गुड़ाना कोई तांडव नहीं,
पर लगता है किसी असमंजस में हैं।
सूरच पीछे किसी भय से नहीं,
पर बीच में कहीं पड़ना, उसकी आदत नहीं है।
मेरी कोहनी और घुटने रंग गए,
उस रंग में, जो रेंगने से रिसता है।
फिर चंद पल बरगद कि छाव में,
जहां तलवों के नीचे हर दाना पिस्ता हैं।
घर तोह कुछ मिनटों की दूरी पर है,
जिधर नरम कंबल करेगा तन को दीवाना,
मगर कुछ बात और कर लू मै इन बूंदों से,
इससे पहले कि इन्द्र हो स्वर्ग को रवाना।

बेबसी। Bebasi

लोग कहते हैं की बेबसी किसी कुत्ते जैसी होती है,
मै कहता हूँ कम से कम, कुत्तों में दया तो होती है।

जो कुत्ते दया ना करते, आंचल फटता एकांत का,
निर्दय अगर यह होते, दिखता ईमान इंसान का।
बचाव करे तो कैसे, चलते हैं चारों पाव पर,
भागे भी कितनी दूर, जो जान लगी है दाव पर।

इंसान इंसानियत भूल जाएं,
तो क्या कुत्ता वहशीपन नकार दे?
क्या मजाल हो सकती हैं उसकी,
जब इंसान उसकी इज्जत भी डकार ले।

हिम्मत थी उस बेजुबान में,
जो जीने की आस रखता था।
पर बेरहम था बेहद कुदरत भी,
सो बेचारा तड़प-तड़प के मरता था।

- Shashank Jakhmola