Thursday, January 31, 2019

आवाज़ एवं चादर

सुबह की कंपन

दोपहरी झुलसन

फ़िर शाम की थकन, 

कोई आवाज़ कहती मेरे सर पर

आ रहा हूं मैं बिछाने

काली चादर तेरे मन पर।

उसी चादर के भीतर

पलकों में छिपाएं आंसू

हलक में दबाएं सिसक

आवाज़ फ़िर भी कोसे

दुखियारी राग में बेधड़क।

आवाज़ हैं कि बौखलाए,

तू आवारा, तू नाकारा 

और न जाने क्या क्या, 

फाड़ लू अपने पर्दे

फोड़ लू अपनी आंखें

जोड़ लू हाथ अंधेरे को

कि जान मेरी लेजा ले।

बेगुनाही का मंसूब बेबसी से

जो बेकसूर हुआ फ़ौत

खुशियों की कोक में। 

यकीं नहीं होता अपनी यादों पर

ना दिखे भरोसे का ठिकाना 

आने वाले कल की खोज में। 


Sunday, January 27, 2019

गुलाबी

गुलाबी बादल झुलसे हैं

बढ़ती आग की लाली में,

कोई धनुष तीर तान बैठे

बूढ़े पीपल की डाली पे,

उठे चमकती शमशीर यू

नीले झरने के आंचल से,

हुई कुर्बानियां गाड़ी सुर्ख

गंदी गलियों की नाली में।


किसी झाड़ी के पीछे छिपा जत्था, अनगिनत चीखों के बीच अपने पुरषोत्तम का इंतज़ार कर रहा था। ख़ून के बौछारों की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती, ना मालूम पड़ती है ध्वनि उस धार की जो लोथड़े को चीर फाड़े। जिस कल्पना से किसी तट किनारे कीर्तन हुआ करते थे, वोह आज बेबसी से भरे घूटों को भी न्योता भेजे थीं। अच्छी यादें तोह नरमाहट सी होती हैं, मगर वर्तमान के डरावने सपनों ने अच्छे अच्छो के पिछवाड़े जमा दिए। 


चींटी मक्खी मनाएं दावत

लसलसे ख़ून के रस से,

जो ना चूसे वों घूमे हैं

भद्दे गंध की उमस में।

बिन छटपटाए

कोई सो जाएं

निहायती भी ना रो पाए,

जो रो जाएं

वोह खों जाएं

कट गिरे सिर जो धड़ से।


एक बूढ़ा और उसका नाति खुशकिस्मती से जान बचा कर भाग सके, हालाकि दुआओं पर अभी भी ज़ोर दीया जा रहा था। नाक सिकुड़ी, लुंगी गीली और नयन ताके रस्ता, गुलाबी बादलों की मदद से। अचानक से तलवे फिसलते संतुलन के मारे, जो आगे कोई चट्टान सा साया रस्ता रोके खड़ा था। नन्हा अपने नाना के लुंगी के पीछे छिपा; अपनी आवाज़ को ज़ुबां, और ज़ुबां को दाड़ के पीछे छिपाए हुए था। धीमें से साया आगे बढ़ा।


शूरवीर था क्यूं

लालची जोख़िम का,

लालच थी क्यूं

शोले सी तालू पर,

ना थकान लागे इसको

ना दर्द जागे इसमें,

मोड़ कर पांव

जोड़ कर हाथ

पटक कर अस्त्र

धरती की लकीरों पर,

ऐसी गुलाबी बादलों की करतूत

अपनों से कैसे आवारा बनाती

और कैसा बंजारे साए का करिश्मा

पिछड़े लावारिस जीवन को बचाती।

Tuesday, January 22, 2019

दौलतराम-गंगाराम

दौलतराम की गंगा मैली,

गंगाराम कंगाल बड़ा,

भ्रांति भ्राता मन से खेले,

आफ़त का बढ़ता घड़ा।

खुशियों का चिकना लेप नहीं,

धातु इसका मनहूस कठोर,

फेक फांककर, गेर गारकर,

भी ना बदले इसका भूगोल।

हज़ारों ख्वाहिश, लाखों सवाल,

करोड़ों विकल्प में अटके हैं,

चार दिवारी भ्रमण से हारे,

दुविधा में यू लटके हैं।

दूध का कर्ज़ या ज़हर का फ़र्ज़,

जीवन के तत्व से लागे हैं,

जो प्रभु भी बग्ले झांक पड़े,

चीखें दोनों आलापे हैं।

वजह वजूद के झूले में,

हैं न्याय सबूत के कुएं में,

भयभीत हो या हो भयमुक्त,

मिले उत्तर कर्म के कूल्हे में।


Saturday, January 5, 2019

सूखे दाग़ लहू के

सूखे दाग़ लहू के,

दीवार की बाहों में बसते थे,

आंसू भगोड़े गाल पर भागे,

विष खौफ का डसे थे। 

कटे खिलौने एक तरफ,

कुंद था ब्लेड दूजी ओर,

सनी सी उंगली सुन्न पड़ी,

और मंद दिमाग़ ख़ाली चकोर।

खिलवाड़ खिलौने नहीं,

पर करती अपनी नियति,

गुस्ताख़ी जो गले पड़ी,

फबती ख़ुदा की नज़रें कस्ती।

अरे गलती से ही गलती होती,

बली का बावला कोई नहीं,

सुबकते हिम्मत की गुहार,

माफ़ी आपा से ज़्यादा सही।