सुबह की कंपन
दोपहरी झुलसन
फ़िर शाम की थकन,
कोई आवाज़ कहती मेरे सर पर
आ रहा हूं मैं बिछाने
काली चादर तेरे मन पर।
उसी चादर के भीतर
पलकों में छिपाएं आंसू
हलक में दबाएं सिसक
आवाज़ फ़िर भी कोसे
दुखियारी राग में बेधड़क।
आवाज़ हैं कि बौखलाए,
तू आवारा, तू नाकारा
और न जाने क्या क्या,
फाड़ लू अपने पर्दे
फोड़ लू अपनी आंखें
जोड़ लू हाथ अंधेरे को
कि जान मेरी लेजा ले।
बेगुनाही का मंसूब बेबसी से
जो बेकसूर हुआ फ़ौत
खुशियों की कोक में।
यकीं नहीं होता अपनी यादों पर
ना दिखे भरोसे का ठिकाना
आने वाले कल की खोज में।